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________________ विभाव में पहले अहम् उत्पन्न होता है। पूरण को अहम् कहा जाता है। गलन और पूरण दोनों, 'मैं' हैं और ऐसा कहता है कि जो भुगतता है, वह भी 'मैं हूँ। पूरण करते समय, 'मैं ही हूँ' ऐसा मानता है तब प्रयोगसा और जब मानता है कि मैं भोग रहा हूँ, तब मिश्रसा। जिसे अक्रम ज्ञान प्राप्त हुआ है, उस व्यक्ति में विशेष भाव रहता ही नहीं है। फ्रेक्चर हो जाता है। जो बाकी बचते हैं, वे तो सिर्फ चोट के निशान हैं अर्थात् चारित्र मोह। विशेष भाव उत्पन्न होने के बाद उसके परिणामों की परंपरा चलती ही रहती है। स्वरूप जागृति के बाद ही विशेष भाव का सातत्य खत्म होता है। विशेष भाव में से भावक बनते हैं। क्रोधक में से क्रोध, लोभक में से लोभ उत्पन्न हुआ, उसी को प्रतिष्ठित आत्मा ऐसा मानता है कि 'मैंने किया'। जैसे-जैसे भावक भाव करवाता है, वैसे-वैसे वह मज़बूत होता जाता है। स्वभाव में रहते हुए चेतन विभाविक हो जाता है। विशेष भाव बाहर से खड़ा हुआ है, आत्मा में से नहीं। आत्मा स्वभाव में से बाहर जाता ही नहीं है। चेतन और संयोग अनंत हैं। संयोगों से अहंकार खड़ा हुआ और उनके आधार पर टिका हुआ है। जिसका अहंकार गया, उसके सभी संयोग गए! तमाम विभाविक पुद्गल के शुद्ध होकर अलग हो जाने के बाद आत्मा संपूर्ण रूप से मुक्त होता है। ज्ञान के बाद फाइलों का समभाव से निकाल (निपटारा) करते-करते अंत में मुक्त हो जाता है। यह जो शुद्धात्मा है, वही वह 'खुद' है, वही उसका 'खुद का' स्वरूप है। 'तुम खुद' वहाँ (शुद्धात्मा) से अलग हो गए हो और मूल 37
SR No.034306
Book TitleAptavani 14 Part 1 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Other
File Size2 MB
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