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________________ २७४ आप्तवाणी-१४ (भाग-१) (कर्म) बाँधता है और नापसंद अवस्था में तन्मयाकार नहीं होता तो तब भी वह नापसंदगी वाला (कर्म) बाँधता है (अज्ञानी के लिए)। अवस्थाओं में तन्मयाकार रहने के बावजूद भी यदि हमें नमस्कार करने में तन्मयाकार होगा तो भी उसका काम हो जाएगा और उसका कल्याण हो जाएगा। जो अवस्था मात्र से मुक्त हो चुका है, वही मुक्ति दे सकता है। जब तक ज्ञानी पुरुष मुहर न लगा दें, तब तक ऐसी अवस्था (साधक अवस्था) उत्पन्न नहीं हो सकती। साधक अवस्था का फल है, सिद्ध अवस्था। वर्ना पूरे दिन उल्टा ही करता रहता है। अवस्था में चिपक जाता है चित्त वहाँ जिस अवस्था की आहुति, स्वाहा हो गई, उसके घाव नहीं लगते। घाव किसलिए लगते हैं ? तो कहते हैं, लक्ष (जागृति) से। अतः जिन अवस्थाओं में लक्ष गया, वहाँ पर घाव हो जाता है और उसमें लक्ष नहीं जाए तो वह अवस्था स्वाहा हो जाती है, जागृति यज्ञ में। लक्ष का नियम ऐसा है न कि जहाँ पर लक्ष बैठता है, फिर वह बार-बार वापस वहीं पर जाता है। सभी कुछ बदल जाता है लेकिन लक्ष नहीं बदलता। हम अलख का लक्ष बैठा देते हैं, उसके बाद अवस्थाओं में लक्ष नहीं रहता और निकाल हो जाता है। जिस अवस्था के जितने अधिक घाव पड़ते हैं, वही अवस्था हमारे पास अधिक से अधिक मंडराती रहती है, मक्खी की तरह। अगर कोई कहे कि मुझे अनुभव क्यों नहीं होता है? तो वह इसलिए कि लक्ष के जितने घाव पड़े हुए हैं, वे भरे नहीं हैं। ये घाव ज्ञानभाषा के सूक्ष्म घाव हैं। कितने ही घाव तो ऐसे भी होते हैं कि पीप निकलता ही रहता है। जैसे-जैसे ये सभी घाव भरते जाएँगे, वैसे-वैसे अनुभव होता जाएगा। रिलेटिव में कैसा है कि एक घाव भरने के लिए वहाँ से लक्ष उठाकर दूसरी जगह पर लक्ष बैठा देता है, तब पहले वाला घाव भरने लगता है लेकिन जहाँ पर नया लक्ष रखा, वहाँ पर वापस नया घाव हो जाता है। पूर्व जन्म में जिन पर्यायों का खूब वेदन किया हो, अब वे अधिक
SR No.034306
Book TitleAptavani 14 Part 1 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Other
File Size2 MB
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