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________________ २५० आप्तवाणी-१४ (भाग-१) अर्थात् यह जो अवस्था शब्द है न, वह इन स्थूल अवस्थाओं के बारे में नहीं लिखा गया है, पर्यायों के बारे में लिखा गया है। तो इनमें, इन अवस्थाओं में स्थूल भी आ सकता है। ये स्थूल अवस्थाएँ उसे बुद्धि से ही समझ में आती हैं। जी रहा है, घूम रहा है, ऐसा सब समझ सकता है। गीता की यथार्थ समझ प्रश्नकर्ता : गीता में कृष्ण भगवान ने ऐसा कहा है कि मैं सृष्टि का सर्जन करता हूँ, पालन करता हूँ और उसका नाश भी करता हूँ। दादाश्री : वह ठीक है लेकिन उसका तो अर्थ ही अलग है। वे जो कहना चाहते हैं, वह आपको समझ में नहीं आ सकता। उत्पात, व्यय और ध्रुव, वह आपको समझ में नहीं आ सकता। वह तो आत्मा का एक प्रकार का स्वभाव है कि उत्पन्न होना, ध्रुवता करना और विनाश होना। वह हर एक तत्त्व का स्वभाव है। अतः यह जो कहा गया है, वह भगवान ने इसीलिए कहा है कि 'मैं गीता में यह जो कह रहा हूँ, उसे हज़ारों लोग पढ़ेंगे तो उनमें से एक व्यक्ति इसके स्थूल अर्थ को समझेगा और ऐसे हज़ारों में से एकाध सूक्ष्म को समझेगा, ऐसे हज़ारों में से एकाध सूक्ष्मतर को समझेगा और उन हज़ारों में से एकाध उस सूक्ष्मतम को समझेगा कि मैं क्या कहना चाह रहा हूँ। तो भगवान की कही हुई बात कैसे समझ में आ सकती है? कृष्ण भगवान क्या कहते हैं? 'ज्ञानी ही मेरा आत्मा है और वह मैं खुद ही हूँ।' ज्ञानी पुरुष आएँगे तभी छुटकारा होगा, नहीं तो छुटकारा नहीं हो सकता। प्रश्नकर्ता : आपने कहा है कि इस सृष्टि की शुरुआत भी नहीं है और अंत भी नहीं है परंतु गीता में तो पढ़ा था कि यह सृष्टि आदि में अप्रकट, मध्य में प्रकट और अंत में अप्रकट ही है। दादाश्री : हाँ! उत्पाद, वह अप्रकट कहलाता है। फिर आता है ध्रौव, वह प्रकट कहलाता है और व्यय, वह अप्रकट कहलाता है। उत्पात, ध्रुव और व्यय। मनुष्य अप्रकट था, यहाँ पर जन्म लिया तब अप्रकट में
SR No.034306
Book TitleAptavani 14 Part 1 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Other
File Size2 MB
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