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________________ १९८ आप्तवाणी-१४ (भाग-१) दादाश्री : कुछ भी नहीं करना होता। प्रश्नकर्ता : आत्मा का एक भाग है, जो कि पर्याय है, वह बदलता रहता है, उसे करना होता है न? दादाश्री : करना तो किसी को कुछ भी नहीं है। यह सोना है न, तो सोने के गुणधर्म कभी भी बदलते नहीं हैं लेकिन उससे जो अंगूठी बनती है, कुछ और बनता है, तरह-तरह के ज़ेवर, सभी अवस्थाएँ बनती हैं, वे सब बदलती रहती हैं लेकिन सोना वही का वही रहता है। प्रश्नकर्ता : अब, जो आत्मदर्शन होता है, वह तो पर्याय में होता है न, और कहाँ पर होता है? दादाश्री : नहीं! पहले 'उसे' (विभाविक 'मैं' को) दर्शन हो जाता है। उसे श्रद्धा बैठ जाती है। प्रतीति होती है कि 'मैं यह हूँ'। फिर अनुभव हो जाता है। अतः पहले जो पर्याय अशुद्ध थे, वे पर्याय अब शुद्ध हो गए। प्रश्नकर्ता : अब, ये इस प्रकार से जो द्रव्य-गुण हैं, उनकी अनुभूति तो होनी चाहिए न, तभी ऐसा कहा जाएगा न कि हमें आत्मा की अनुभूति दादाश्री : ठीक है। अनुभूति तो मुख्य चीज़ है न! हमें तो इतना ही चाहिए कि ये आवरण टूट जाएँ। प्रश्नकर्ता : यह जो अनुभूति होती है, वह तो पर्यायों को होती है न? दादाश्री : मूल द्रव्य-गुण व पर्याय, इन सब का 'मैं' को एक साथ अनुभव हो जाता है। सिर्फ पर्यायों को ही नहीं होता, सब साथ में ही होते हैं। गुण के बिना पर्याय हो ही नहीं सकते। पर्याय नहीं होंगे तो गुण नहीं होंगे। अविनाभावी (अविच्छेदी संबंध) हैं सब। अर्थात् साथ में ही अनुभव हो जाता है।
SR No.034306
Book TitleAptavani 14 Part 1 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Other
File Size2 MB
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