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________________ १८६ आप्तवाणी-१४ (भाग-१) दादाश्री : हाँ, तभी न! लेकिन उसे पूरी तरह से पहचान नहीं पाता। जब पूरी तरह से पहचान जाएगा तब भगवान बन जाएगा। प्रश्नकर्ता : अब अहंकार को पुद्गल का स्वरूप कहा गया है, तो वह खुद उसमें से किस प्रकार शुद्ध होता है? वह अशुद्ध में से शुद्ध की तरफ किस प्रकार आता है? दादाश्री : वह किसकी भजना (उस रूप होना, भक्ति) है? शुद्ध की भजना करे तो वह शुद्ध बन जाता है। यदि ऐसी भजना रहे कि 'मैं शुद्धात्मा हूँ', तो शुद्ध बन जाता है। वर्ना यदि कहे, 'मैं राजा हँ' तो राजा बन जाता है। __ जो भजना करता है, वह अहंकार है। अशुद्ध की भजना करे तब तक वह वैसा ही अशुद्ध रहता है, शुद्ध की भजना करे तो वैसा ही शुद्ध बन जाता है। जैसा चिंतन करता है, वह वैसा ही बनता जाता है। जो पूरे दिन चोरियाँ ही करता है, वह शुद्धात्मा की भजना कैसे करेगा? 'मैं चोर हूँ' ऐसी ही भजना होती रहेगी न? और वह चोर बन ही जाता है। प्रश्नकर्ता : अर्थात् वह जैसा व्यवहार करता है, वैसी ही उसकी भजना होती है न? दादाश्री : व्यवहार पर ही पूरी भजना आधारित है। जैसी उसकी भजना होती है, उसी अनुसार व्यवहार रहता है और जैसा व्यवहार हो उसी अनुसार भजना होती है। ज्ञान होने के बाद में सिर्फ अंतिम अवतार में व्यवहार और भजना, दोनों अलग-अलग होते हैं। व्यवहार बेकार है और निश्चय काम का है, तब उस तरफ की भजना चलती है कि व्यवहार का अब निबेड़ा लाना है। प्रश्नकर्ता : तो व्यवहार को अर्पण करने वाला कौन है ? दादाश्री : अर्पण करने वाला यह पुद्गल ही है। वह समा जाना चाहता है, और क्या? वही का वही पुद्गल। एक चीज़ समझ लेनी है कि अपना जो व्यवहार आत्मा है, वह
SR No.034306
Book TitleAptavani 14 Part 1 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Other
File Size2 MB
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