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________________ १७६ आप्तवाणी - १४ (भाग-१) भी उसी प्रकार से है । अर्थात् शुद्धात्मा वाली दृष्टि * होते ही सबकुछ विलय होने लगता है । तब तक अहंकार है । वह अहंकार नहीं है परंतु 'मैं' है प्रश्नकर्ता : अर्थात् यह अहंकार ही बोल रहा है न? जो उल्टा चल रहा था वही अब... ऐसा कहता है न कि 'मैं शुद्धात्मा हूँ' ? I दादाश्री : ‘मैं’! ‘मैं' (जागृत आत्मा) ऐसा कहता है, अहंकार नहीं कहता। अहंकार तो अलग रहता है । अहंकार नहीं कहता । 'मैं', वह ‘मैं' खुद का स्वरूप ही है। अब (मूल) स्वरूप खुद नहीं बोलता है लेकिन यह क्रिया उस तरफ की है। हम जिसे शुद्धात्मा कहते हैं वह शुद्धात्मा खुद भी शब्द नहीं है, यह क्रिया उस तरफ घूम गई है अब । जैसे-जैसे 'आपकी' श्रद्धा बदलती है, बिलीफ बदलती है, वैसे-वैसे आवरण टूटते जाते हैं। आवरण तोड़ने वाली चीज़ है यह। लेकिन वह भान ही कि ‘मैं शुद्धात्मा हूँ', वही 'मैं' का अस्तित्व है। भान बदल गया। यदि अहंकार है तो काम ही नहीं आएगा न ! वह चीज़ ही अलग है। अहंकार को लेना-देना नहीं है । अहंकार के विलय होने के बाद तो खुद का स्वरूप, ‘वह' (भान) होता है । यह सब अंतरिम कहलाता है । प्रश्नकर्ता : जो भटक गया है वह अहंकार कौन सा है, सजीव या निर्जीव ? दादाश्री : सजीव। प्रश्नकर्ता : भटका अर्थात् अहंकार कैसे भटक जाता है ? दादाश्री : जब से उसे पता चलता है, कोई कहे कि यह गलत रास्ता है, और जब से वह वापस पलट जाता है तभी से वह निर्जीव कहलाता है । फिर निर्जीव अहंकार के सहारे 'वह' वापस लौटता है । प्रश्नकर्ता : ठीक है । लेकिन क्या वापस लौटना, वह निर्जीव अहंकार है ? दादाश्री : कोई 'उसे' वापस निकाल दे कि 'यह रास्ता गलत है, * दष्टि के अधिक रेफरेन्स के लिए आप्तवाणी - ३, ८ और १३
SR No.034306
Book TitleAptavani 14 Part 1 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Other
File Size2 MB
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