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________________ ( १.८) क्रोध - मान से 'मैं', माया - लोभ से 'मेरा ' प्रश्नकर्ता : आत्मा के अलावा अन्य जो कुछ भी दिखाई देता है वह सारा विभाव है ? १०५ दादाश्री : वह सब विभाव का फल है और फिर वह सब विनाशी है। इकट्ठा किया हुआ टिकता नहीं है। चाहे कितना भी इकट्ठा करो, देह को अपना बनाने जाओ तो ऐसा कभी होगा नहीं । प्रश्नकर्ता : हर एक में चेतन एक सरीखा है और जड़ भी एक सरीखा है। तो हर एक में व्यतिरेक गुण की मात्रा कम - ज़्यादा क्यों होती है ? दादाश्री : चेतन सभी में एक सरीखा है। जड़ एक सरीखा नहीं है। यदि जड़ एक सरीखा होता न, तो किसी को पहचान ही नहीं पाते । सब एक ही प्रकार के चेहरे और एक ही प्रकार का सबकुछ । प्रश्नकर्ता : लेकिन उन सब के जो मूल अणु - परमाणु हैं, वे तो एक सरीखे ही हैं न ? दादाश्री : हाँ, लेकिन उन अणु-परमाणुओं का नहीं देखना है। अभी अपना यह जो शरीर वगैरह बना है, वह एक सरीखा नहीं है । प्रश्नकर्ता : ऐसे लोगों में, जिन्हें ज्ञान नहीं है, उनमें किसी में ज़्यादा इगो होता है और किसी में कम, ऐसा क्यों ? दादाश्री : वह सब तो रहता है । वह कम या ज़्यादा हो सकता है। वह सारी सत्ता उसके हाथ में नहीं है । वह 'खुद' मानता है कि 'मैं यह हूँ', वास्तव में वैसा नहीं है । 'मैं हूँ', वह भ्रामक मान्यता है। और वह किसी में कम या ज़्यादा हो सकता है लेकिन निकलता नहीं है । दोनों के अलग हुए बिना नहीं जा सकता । प्रश्नकर्ता : लेकिन इसमें जब संयोग मिलते हैं तब फिर वापस खत्म हो जाता है न ? दादाश्री : हाँ, संयोग मिलने पर ही । वर्ना होगा ही नहीं न! यहाँ पर भी व्यवस्थित तो है लेकिन हम तो यहाँ पर क्या कहना चाहते हैं
SR No.034306
Book TitleAptavani 14 Part 1 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Other
File Size2 MB
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