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________________ आप्तवाणी-१४ (भाग-१) के अधीन है। शास्त्रों में क्या लिखा हआ है ? स्वभाव से अकर्ता है। यह विभाव से, विशेष भाव से कर्ता है और इसलिए भोक्ता है। अब वह पूरा यहाँ पर (क्रमिक मार्ग में) यों का यों रह गया और व्यवहार में ही चला। व्यवहार को ही आत्मा मान लिया गया। प्रश्नकर्ता : उस संदर्भ में है न? दादाश्री : हाँ। व्यवहार के संदर्भ में यदि कर्ता समझोगे न, तब काम होगा। वर्ना संदर्भ शब्द को भूल जाता है न! और काम हो गया, ऐसा दिखाई नहीं देता न आपको? इसका क्या कारण है ? मूल में बहुत भूलें हैं, कई भूलें हैं। यह तो बल्कि दिखाई नहीं देता और उपाधियाँ बहुत हैं, बेहद कषाय हैं। जहाँ पर हमेशा कषायों को पोषण मिलता है वहाँ पर वीतराग धर्म नहीं है। क्या आपको ऐसा लगता है ? बोलो अब, लाख जन्मों तक भी ऐसे स्वच्छंद विहार से चलेंगे तो कुछ बदलेगा? खुद के स्वच्छंद विहार हैं, और लोगों से क्या कहते हैं कि 'ये सब लोग मूर्ख हैं'। फिर लोगों को मूर्ख कहते हैं। विशेष भाव अर्थात् आत्मा यह सब केवलज्ञान से जान सकता है और दूसरा विशेष भाव से भी जान सकता है, ऐसा कहते हैं। ऐसे संयोग हों तो विशेष भाव को भी खुद जान सकता है। अतः विशेष भाव, वह संयोग और काल के कारण है। उन संयोगों को अलग कर दिया जाए तो विशेष भाव खत्म हो जाएगा। अतः आत्मा और पुद्गल, दोनों जो मिले हुए हैं, उन्हें अलग कर देता हूँ इसलिए उनका विशेष भाव खत्म हो जाता है। पूरी प्रतिष्ठा सर्जित... आपको मूलभूत हकीकत बता देता हूँ। दो प्रकार के आत्मा हैं। एक, मूल आत्मा है और दूसरा, जो मूल आत्मा की वजह से उत्पन्न होने वाला यह व्यवहार आत्मा है। मूल आत्मा निश्चय आत्मा है। उसमें कोई बदलाव हुआ ही नहीं है। वह जैसा था, वैसा ही है और उसकी वजह से व्यवहार आत्मा उत्पन्न हो गया है। जिस प्रकार, हम जब दर्पण के सामने जाते हैं तब दो चंदूभाई दिखाई देते हैं या नहीं?
SR No.034306
Book TitleAptavani 14 Part 1 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Other
File Size2 MB
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