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________________ आप्तवाणी-१४ (भाग - १) है ही नहीं इसलिए हम इसे पावर नहीं कहते लेकिन निश्चेतन चेतन कहते हैं। ३० I प्रेरणा ईश्वर की नहीं है, आत्मा की नहीं है । प्रेरणा करने वाला होता तो वही गुनहगार कहलाता। प्रेरक ही सब से बड़ा गुनहगार है, कर्म उसी को लगते हैं जबकि आत्मा तो साफ, शुद्ध स्वरूपी है और वह ऐसा नहीं है कि उसे कर्म स्पर्श कर सकें । 'कर्म' स्थूल चीज़ है और 'आत्मा' सूक्ष्मतम है, जिसे ‘मैंने' देखा है, अनुभव किया है, उसी में बरतता हूँ। निरालंब आत्मा को देखा है । रागादि भाव नहीं हैं आत्मा के प्रश्नकर्ता : 'निश्चय दृष्टि से आत्मा के आंतरिक रागादि भाव, बंधन के कारण हैं और कर्म बंधन को संसार का हेतु कहा गया है' वह ज़रा समझाइए। दादाश्री : अब, रागादि भाव आत्मा के खुद के नहीं हैं। यहाँ ज़रा लोगों (की बात) में स्पष्ट रूप से लिखा नहीं गया है । रागादि भाव खुद के नहीं हैं, वे पराई उपाधि ( बाहर से आने वाला दुःख) की तरह हैं । उपाधि जैसा है। जैसे किसी व्यक्ति को उपाधि हो जाए और इसलिए वह उपाधि ग्रस्त लगता है । वह उपाधि की वजह से है । उपाधि न हो तो कुछ है ही नहीं। अतः रागादि गुण खुद के गुण नहीं हैं । दो वस्तुओं के मिलने से तीसरी चीज़ उत्पन्न हो जाती है। अलग ही गुणधर्म, ये जो राग-द्वेष हैं, वे व्यतिरेक गुण हैं इसलिए यहाँ पर उन लोगों के क्रमिक मार्ग में यह सिस्टम है और तभी उनका चलेगा, नहीं तो चलेगा नहीं न! जबकि अपना 'अक्रम' साफ-साफ बताता है । प्रश्नकर्ता : अब क्योंकि राग परिणाम खुद के पर्याय में हैं, इसलिए आत्मा उसका कर्ता है । अब क्या यह राग परिणाम आत्मा का पर्याय है ? दादाश्री : नहीं, ऐसा नहीं है। हम जो समझे हैं न, पूरा क्रमिक मार्ग उसे जानता ही नहीं है । प्रश्नकर्ता : तो बिल्कुल उल्टा ही है ?
SR No.034306
Book TitleAptavani 14 Part 1 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Other
File Size2 MB
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