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________________ ६. ७. ८. मान मिला सम्मान मिला बहु, फिर भी मान नहीं आया । फूलों से झुक जाती डाली, कुछ ऐसा मन को भाया ।। गुरु भक्ति के रंग में रंगी, उनकी परम आराधक थीं । होम दिया था जिसमें जीवन ऐसी अद्भुत साधक थी ।। वल्लभ ज्योति जग में फैली, कुछ ऐसी अभिलाषा से । स्मारक की भी नींव थी रखी, कितनी उंची आशा से ।। ११. पूर्व की किरणों ने जग को, सदा दिया उजियारा हैं । ९. १०. १२. પ્રેરણાની પાવનમૂર્તિ कांगडा तीर्थधाम बना था, अजूबा तूने उद्धार किया । लहरा में लहराया झण्डा, अजब तूने उपकार किया ।। पंजाब की धरती पर विचरे थे, गुरु का वचन निभाने को । वल्लभ की फिर याद दिलाने, वल्लभ के दिवाने को ।। १३. तूने भी यह रीत निभाकर देश का रूप निखारा है ।। तेरे श्रम से दिल्ही को भी, तीर्थ का वरदान मिला । स्मारक पर जिन ध्वजा लहरा, और श्रीसंघ को सन्मान मिला ।। जर्रा जर्रा इस धरती का, तेरे गीत सुनायेगा । बल्लभ के संग तेरा भी अब नाम अमर हो जाएगा ।। गुरुनी जी दिल्ली पधारो दिल्ही श्रीसंघ की तरफ से विनती जयपुर में पधारे हैं, महाराज चलते चलते । विदुषी मृगावती जी महाराज चलते चलते ।। टेक | आदेश है गुरु का दिल्ली में पहुँचने का । पलभर ना शान्त बैठे, महाराज चलते चलते ।।१।। अम्बर से आग बरसी, धरती ने आग उगली । लेकिन कदम रुके ना, हवाबाज़ चलते चलते ||२|| आदेश गुरुजी का भक्तों की जिन्दगी है । बतलाया तुमने हमको, यह राज़ चलते चलते ॥३॥ ૨૩૮ परिशिष्ट-9 सच्ची गुरु की भक्ति, कोई इन गुरु से सीखे । गाता है इनका नगमा, हर साज़ चलते चलते ||४|| इतिहास फिर दोहराया, पंजाब केसरी का । आये थे बिनोली से, सरताज चलते चलते ||५|| मैसूर में थी बरसी, अनुपम तुम्हारी वाणी । जयपुर में वही देखें, अन्दाज़ चलते चलते ।।६।। महावीर शताब्दी है, दिल्ली बुला रही है । गूंजे वहां गुरु की आवाज चलते चलते ॥७॥ अ 'राम' क्या सुनाउं, बल्लभ गुरु की सिफ्ते । हमें दे गये समुन्द्र, सा ताज़ चलते चलते ॥८॥ अरमान मेरे दिल के, क्या 'राम' पूरे होंगे । दिल्ली में पधारेंगे, महाराज चलते चलते ।।९।। कांटा बनकर चुभती थी - नाजर जैन, चण्डीगढ काल की नजरों में, ख्याति तेरी, कांटा बनकर चुभती थी, हैरान था काल, जब आ आ कर, दुनियां चरणों में झुकती थी । बाल अवस्था से ही तुमने, जीत लिया दुनिया का दिल, युग-युग से सम्बन्ध हो जैसे, ऐसे गए दुनिया से मिल, नई नई जब तेरे अरमां की बनके बदलियां उठती थीं । काल की नजरों में ख्याति तेरी, कांटा बनकर चुभती थी । हर परीक्षा की आंधी और तूफान, बन गए सब तेरे, दे दिया सिंह, सरपों ने रास्ता बन गए पूनम अंधेरे, आंगन में रजनी के, तेरे प्यार की ज्योति जगती थी । काल की नजरों में, ख्याति तेरी, कांटा बनकर चुभती थी। रूप तेरा मानव का था, पर देवों वाले काम किये, स्वर्ग से जो उपहार लाए, 'महत्तराजी' कौम को तुमने दिये, जैसे सचमुच हो तुम 'चन्दना' ऐसी जग को लगती थी । काल की नजरों में, ख्याति तेरी, कांटा बनकर चुभती थी । 206
SR No.034293
Book TitlePrernani Pavan Murti Sadhvi Mrugavatishreeji
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumarpal Desai, Malti Shah
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages161
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size2 MB
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