SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १. पादोपगमन-इसमें आत्मा वृक्ष की भांति स्थिर रहती हैं और सामायिक, ध्यान आदि साधनाओं में समाधिस्थ होती है। २. भक्त प्रत्याख्यान-इसमें तीन अथवा चार प्रकार के आहार का परित्याग किया जाता है। इसे संथारा और संलेखना भी कहा जाता है। संथारा में विवेकपूर्वक देह और कषाय को कृश किया जाता है। इसे समाधि भी कहते हैं। ३ इङ्गिनीमरण-यावज्जीवन चारों आहारों के त्याग के बाद निश्चित स्थान में हिलने-डुलने का आगार रखकर जो मृत्यु होती है, उसे इङ्गिनीमरण कहते हैं। इङ्गिनीमरण वाला अपने स्थान को छोड़कर नहीं जाता। वह दूसरों से अपनी सेवा नहीं करवाता। . ४. केवलीमरण-केवलीमरण, केवलज्ञान होने के बाद मरने पर होता है। ५. छद्मस्थ मरण-केवलज्ञान बिना प्राप्त किये छद्मस्थावस्था में ही मृत्यु हो जाना छमस्थ मरण है। पण्डित मरण ज्ञानी जीव का होता है जो मृत्यु को मित्र मानकर उससे मिलने के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं। मृत्यु उनके लिए विषाद का कारण नहीं होती। इसलिए वे मृत्यु को और उसके पश्चात् के जीवन को For Private and Personal Use Only
SR No.034243
Book TitleMrutyu Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorP M Choradia
PublisherAkhil Bhartiya Jain Vidvat Parishad
Publication Year1988
Total Pages49
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy