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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Skop,genas,Bekas/2384anmemas,Ceka,DekaT/90DS/KO सूरिजीमें क्षमा-समता-दाक्षिण्यता-गुरूआज्ञा इत्यादि गुण इतने ओतप्रोत थे कि, जब अपन उनके जीवन-चर्या के एक-दो प्रसंग देखेंगे तो विदित हो जायेगा । एक बार गोचरीमें खीचडी अत्यंत खारी आई थी । वह खीचडी सूरिजीके खानेमें आई । आप मौन होकर आहार कर गये । पीछेसे श्रावक दौडता-दौडता आया और कहने लगा, महाराज मेरी बहुत गल्ती हुई माफ करें । साधुनें पूछा, कया हुआ ? उसने उक्त प्रसंग को सुणाया । शिष्यों, सूरिजी के मौनसे दिग्मूढ हो गये, और बोलने लगे, आपनें रसनेन्द्रिय पर कितना काबू किया है । आप रोजाना बारह व्य (चीज) आहारमें लेते थे । 1. एक बार आपके कम्मर में फोडा हुआ था । वो बहुत पीडा कर रहा था । रातको एक श्रावकने भक्ति करते हुये अपनी अंगूठी छू जाने से वो फोडा फूट गया । खुन बहने लगा । उस समय आपको इतनी पीडा हुई कि, आपने एक भी शब्द अपने मुंह से नहीं निकालकर उस पीडाको सहन किया । सुबह सोम विजयजीने पडिलेहणके समय उत्तरपटो (चादर) रकतवर्णवाली देखी । सूरिजीनें रातकी बात सुनाई । श्रावकके अविनयसे शिष्य को खेद हुआ | मगर सूरिजीने ऐसा उत्तर दिया कि, साधु मंडली गुरूवरकी सहनशीलता पर मुग्ध हो गई | गुरूदेव के प्रति आपकी भक्ति भी इतनी थी कि, एक समय गुरूदेव विजयदानसूरिजीनें आपको पत्र भेजा । शीध्र पत्र पढकर आ जावें । आपने पत्र पढा, उस दिन आपको छठ(दो उपवास) था । श्रावकोंने पारणा के लिये बहुत आग्रह किया | मगर आपने तुरंत ही बिना पारणा किये विहार करके गुरूवर के पास पहुंच गये | जब गुरूवरको मालुम हुआ तब आपकी गुरूभक्ति पर गुरूदेव अत्यंत प्रसन्न हो गये । SUDSKOSYETLOSNETLOSUDSKOSKETILBUDTABELDT ABSUDINE 29 For Private and Personal Use Only
SR No.034239
Book TitleJjagad Guru Aacharya Vijay Hirsuriji Maharaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhratnavijay
PublisherJagadguru Hirsurishwarji Ahimsa Sangathan
Publication Year
Total Pages83
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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