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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir kangelasalan,gelassekassekammekas,bekasno सूरिजी राजसभाके द्वार पर पधारे तब बादशाहनें सिंहासन पर से उठकर निजी तीन पुत्रों के साथ अभिवादन कर नमन किया । सूरिजीनें धर्मलाभका मंगल आशीष दिया । सूरिजी के दर्शन से बादशाह के मुखपर हर्षकी लालिमा छा गई । और अपने बैठक तक ले गये । बादशाह खडे है और सुरीश्वर भी खडे है । अकबरने क्षेमकुशल की पृच्छाकर कहा, आप मेरे लिए बहुत कष्ट के पहाड को पार करके आये हो, इसलिये में आपका अहसान मानता और कष्ट के लिए क्षमा चाहता हुं । आपको मेरे सुबाने कुछ भी साधन नहीं दिया । सूरिजीने उत्तरमें कहा, आपकी आज्ञासे मुझे सब कुछ देने को वे तैयार थे । किन्तु हमारा धर्माचार ऐसा है कि कोई भी वाहन का उपयोग नहीं करना । एक पैसा का भी परिग्रह नहीं रखना । पैदल चलना, माधुकरीसे जीवननिर्वाह करना इत्यादि सुनाया था । आपनें क्षमा याची, वो आपकी सज्जनता है ! इस वार्तालाप में बहुत समय हो गया और ज्यादा धर्मोपदेश सुनने के लिये अपने कमरेमें ले जाते है । तब सूरिजी कमाडके पास रूक गये । बादशाहने पूछा, आप क्यों रूक गये ? सूरिजीने कहा, इस गालीचा पर पांव रखकर हम नहीं आ सकते । क्योंकी हमारा आचार है कि चलना हो बैठना हो तो अपनी नजरसे देखकर चलना बैठना । जिससे किसी ___जीवको दुःख न हो और वे मर न जावे | धर्मशास्त्र भी फरमाते है, दृष्टि पुतं न्यसेत् पादम्' बादशाहने कहा, हमारे सेवक रोजाना साफ करते है तो क्या इसमें चिटीया धुस गई कया ? यूं बोलकर अपने हाथ से एक औरसे गालीचा का छोर उठाया । Semassemorganap,meyarlse%aabelascmekassero 12 For Private and Personal Use Only
SR No.034239
Book TitleJjagad Guru Aacharya Vijay Hirsuriji Maharaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhratnavijay
PublisherJagadguru Hirsurishwarji Ahimsa Sangathan
Publication Year
Total Pages83
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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