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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 28,3xascannexaocalar.coense ascolar -: दीक्षा और आचार्यपद : पाटण जब हीरजी शिशुवयको विदा कर तेरह साल की नवीन विकसित युवावय में प्रवेश कर रहे थे। तब आपके माता-पिता नश्वर देह को त्यागकर स्वर्ग प्रति प्रयाण कर गये । वह वज्रधात सदृश वृत्तांत से आपका अंतर वेदनासे बहुत आक्रांत हो गया । मगर आपने जिन-वाणी का सुधास्वाद गुरुमुखसे बार-बार लुटा था । अतः आर्तध्यान वश न होकर आपका ज्वलंत वैराग्य असार संसार के प्रति दोगुणा बढ गया था । इस दुःख को दूर करने के लिये आपको अपनी बड़ी बहिन विमला अपने ससुराल पाटण ले गई । मगर आपका आत्म-पंखी अब संसार-पिंजर को छोड कर मुक्त विहारी बनने के लिये किसी रास्ते को ढूंढ रहा था । इतने में आपके पुण्यबलसे आकर्षित न हुये हो ऐसे परमोपकारी सकल शास्त्रविद् आचार्यदेव श्रीमद् विजयदानसूरीश्वरजी महाराज का सपरिवार पाटण शहर में शुभागमन हुआ । मेधके आगमन से जिस तरह प्रजा आनन्दविभोर बन जाती है उसी तरह सूरीश्वरके पुनित पाद-कमल से जनता के हृदय में हर्ष की लहर छा गई । पूज्यश्री के हृदयंगम और वेधक देशना प्रवाह से भव्य जनों की पाप-राशि सफा हो गई और मिथ्यात्व-अंधेरा दूर हट जाने से सम्यक्त्व का सहस्त्र रश्मि दिप्तीमान हुआ | आपके सद्बोधसे हजारों जीवोने देशविरति और सम्यक्त्व आदि प्रतिज्ञा लेकर जीवन को निर्मल बनाया । इसमें युवा हीरजीने भी गुरुवर के पास कर्म-विदारिणी भव-नौका सदृश संयम देने की प्रार्थना की । तब पूज्यश्रीनें आपकी पवित्र भावना को वैराग्य रुप नीरसे नव पल्लवित बना दी । और 'शुभस्य शीध्रम्' इस कहावत को सार्थक करने की प्रबल प्रेरणा भी दी। %*0,98%ae,velasmaras/emas/meyas,coalas, saya 2 For Private and Personal Use Only
SR No.034239
Book TitleJjagad Guru Aacharya Vijay Hirsuriji Maharaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhratnavijay
PublisherJagadguru Hirsurishwarji Ahimsa Sangathan
Publication Year
Total Pages83
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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