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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir किसी नाम से । लोक में भी ऐसा देखा जाता है कि एक बच्चे की माता एक नाम से पुकारती है, पिता अपर नाम से, भाई दूसरे से ही। इसी तरह महापुरुषों को भी अनेक नाम से पुकारते हैं। ईश्वरप्राणातिपात मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य परपरिवाद, मायामृषावाद मिथ्यात्वशल्य इन अढार दूषणों से सर्वथा रहित है वही देव है वही तीर्थकर है और वही ईश्वर है। उपरोक्त दूषणों में से एक भी दूषण देखा जायगा तब तक ईश्वर नहीं कहा जा सकता। ___ जैन धर्म कहता है कि ईश्वर एक भी है और अनेक भी है, जैसे कि संसार में से जो व्यक्ति कर्मो का क्षय कर के मुक्ति में जाता है वह व्यक्ति रूप जाने से ईश्वर अनेक है. जब संसार से मुक्त होने पर वे सभी आत्मा स्वरूप से एक हो जाते हैं उस अपेक्षा से ईश्वर एक है। ईश्वर पुनः संसार में अवतार को धारण नहीं करता। क्योंकि जन्म जम्मान्तर में जन्म ग्रहण करने का कारण भूत कर्म को निकंदन कर दिया है, जब कर्म सर्वथा छूट जाते हैं तब ही यह आत्मा परमात्मा (ईश्वर) बन सकता है। फिर इनको संसार में जन्म धारण करने की जरूरत ही नहीं रहती। ईश्वर राग द्वेष शरीर क्रिया आदि से रहित है और उनको इच्छा भी नहीं होती। जब इच्छाका विरोध हो जाता है तब किसी कार्य में प्रवृत्ति भी नहीं हो सकती। इसलिये जैन सिद्धान्त कहता है कि ईश्वर किसी चीज को बनाते नहीं और किसी को सुख वा दुःख देते नहीं । चूकि वह स्वयं निरंजन और निराकार है। अब जो इस संसार के जीव सुख और दुःख भोग रहे हैं वह सब अपने अपने कर्मानुसार भोगते हैं। यद्यपि ईश्वर निरंजन निराकार है एवं कुछ भी लेते या देते नहीं किसी कार्य में प्रवृति करते नहीं! फिर भी ईश्वर की उपासना For Private and Personal Use Only
SR No.034238
Book TitleJagad Guru Hir Nibandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhavyanandvijay
PublisherHit Satka Gyan Mandir
Publication Year1963
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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