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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६ कर तपस्या के विषय में बहुत कुछ सत्यता प्रतीत हुई, तथापि पूरी परीक्षा करने के लिये एक मास तक अपने एकान्त महल में उसे रहने की आज्ञा दे दी और साथ में अपने विश्वास पात्र सेवकों को सूचना कर दी कि इस तपस्विनी बाई की दिनचर्या का बड़े सावधानी से अवलोकन करते रहना, यह क्या खाती पोती है इसकी पूरी तलाशी लेते रहना और हमें सूचित करते रहना । अकबर बादशाह की आज्ञा पाकर सेवक सब बाई की दिन चर्या की गवेषणा करने लगे, बाई के लिये ५ मास से अधिक और एक मास निकालना कठिन साध्य नहीं था, और निकालना भी था, बात ही बात में समय निकलने लगा, परन्तु सेवकों की दृष्टि में तपस्विनी का निर्मल आचार ज्ञात हुआ और किसी प्रकार से मायाजाल का स्वप्न भी न आया, सेवकों द्वारा उक्त बातें सुन कर बादशाह आश्चर्य चकित हो गया, तदन्तर अकवर श्रद्धापात्र तपस्विनी थानसिंह की माता चम्पाबाई के पास जाकर सिर झुकाता हुआ मधुर शब्दों में बोला हे भद्र े ? तू इतना कठोर तप क्यों करती है ? और किसके सहारे से करती है ? तेरे क्या तकलीफ है ? इन बातों का सत्य हाल कहो, उत्तर में चम्पाबाई ने कहा कि तप आत्म कल्याण के लिये करती हूँ जगत् पिता परमेश्वर पार्श्वनाथ प्रभु के और तपोमूर्ति आत्म ज्ञानी तपागच्छ नायक श्री हीरविजयसूरि गुरुदेव के अनुग्रह से करती हूँ कष्ट मुझे किसी तरह का नहीं है क्योंकि न तो मुझे धन की लालसा है न पुत्रादि संतान की इच्छा है, न कुटुम्बियों का दुःख है और न शारीरिक तथा मानसिक तकलीफ है यदि दुःख है तो जन्म मरण रूप भव चक्र का ही है, उसकी निवृत्ति गुरुदेव श्री हीरविजय सूरिजी की अनुकम्पा से ही हो सकती है । इस प्रकार थानसिंह की माता चम्पाबाई के वचनों को सुन कर बादशाह तपस्विनी को दी हुई तकलीफ की क्षमा मांगने लगा और आदरपूर्वक स्वर्ण चूडा उपहार में देकर तपस्विनी चम्पाबाई को धूम For Private and Personal Use Only
SR No.034238
Book TitleJagad Guru Hir Nibandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhavyanandvijay
PublisherHit Satka Gyan Mandir
Publication Year1963
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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