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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अब कौन शरण है । आपके जैसी शान्ति सहनशीलता कौन धारण कर सकेगा ? विद्या विवेक दानशीलता नष्ट हो गई, सत्य आज सचमुच मारा गया, करुणा बिचारी अब किसकी शरण में जायगी ? हे गुरुदेव ! तुम्हारे विना आज जगत ही शून्य हो गया। ( अपनी आत्मा से ) हे जीव ! तेरा मणि खो गया तूने अभी तक इस शरीर के साथ सम्बन्ध कैसे रखा है ? धिक्कार है कि पूज्य-पाद के पीछे नहीं पड़ा अब तू किसकी शरण जायगा अपनी बात किसके सामने रखेगा तेरी शंका को कौन देश निकाला देगा ? तू किसकी सेवा करेगा अब तेरा आश्वासक कौन होगा ? तू जल्दी से जल्दी गुरु की खोज में लग जा, अचेतन छाया भी अपने आश्रय को नहीं छोड़ती तो तू चेतन होकर अपने आधार को छोड़ कर कैसे स्थिर होता है ? तुझे बार बार धिक्कार है कि अब तक यहां वर्तमान है, उठ जल्दी उठ सोद्वग से खड़े होते हैं कि इष्टदेव ने सामने आकर के कहा, हे सूरिराज ? आपको अधीरता शोभा नहीं देती, आप त्यागी और विवेकी विद्वान हैं, विवेकियों को पश्चात्ताप आत्म कल्याण में बाधक हुश्रा करता है, आत्मा अमर है, आत्मा और शरीर का सम्बन्ध अनित्य है, इन दोनों के आत्यन्तिक सम्बन्ध विच्छेद के लिये ही योगिजन अनेक जन्म से प्रयत्नशील रहते हैं. जन्म होने से मरण नियत ही रहता है "जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु ध्रुवं जन्म मृतस्यच" अतएव शोक से पृथक होकर आत्म सावन में लग जाइये, आपकी मानसिक चिन्ता दूर हो जायगी, आप अपने गुरुदेव के प्रसाद से संसार में अतुल होकर प्रजापालक के मुकुटालंकार बनेंगे, इतना कह कर देव के अन्तर्धान हो जाने पर श्री हीरसूरिजी गई बातों को भूल कर अपने नित्य नैमितिक कार्य में तदवस्थ हो गये। ___ कुछ समय में ही द्वितीया चंद्ररूप श्री हीरसूरिजी महाराज को पागच्छ गगन मंडल में समुदित देख कर जनतागण प्रमुदित मन से प्रणाम पुरस्सर गद् गद् स्वर से प्रार्थना करने लगे। भगवन् ! For Private and Personal Use Only
SR No.034238
Book TitleJagad Guru Hir Nibandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhavyanandvijay
PublisherHit Satka Gyan Mandir
Publication Year1963
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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