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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बेटा ! तू' अभी बहुत ही छोटा है, और दीक्षा को समझता ही क्या है ? लोह भार के समान विषम बोझ वाली और शारीरिक सुख को ध्वंस करने वाली दीक्षा तेरे योग्य अभी नहीं है । हे वत्स ! तीक्ष्ण तलवार की धार पर चलना सुकर है किन्तु दीक्षा व्रत का पालन करना सुकर नहीं, हे पुत्र ! अभी तू देवांगना तुल्य सुंदर स्त्री के साथ विवाह कर, समस्त सांसारिक सुखों का अनुभव कर ले, पश्चात् तेरी इच्छा के अनुसार कर लेना। इस प्रकार जननी का वचन सुनता हुआ जयसिंह अपनी माता से कहने लगा अम्ब ! आसन्नोपकारी महावीर प्रभु ने आत्यन्तिक सुखार्थी पुरुषों के लिये गृहस्थाश्रम महापाप का कारण बतलाया है, ऐसे क्यों कहती है मुझे भी तो सुख की ही लालसा है तुम से बताये हुए माला चंदन वनितादि जन्य सुख क्षणिक है वास्तविक सुख तो दीक्षा जन्य ही है, अतः महापुरुषों से प्रदर्शित आत्यन्तिक सुख (मोक्ष) मार्ग पर जाने में बाधक मत हो, मेरी तीव्र मुमुक्ष की प्रच्छन्न अग्नि तेज से धधक रही है, शान्ति के लिए सद्गुरु रूप नूतन जलधर के सिवाय इतर उपाय व्यर्थ है अतः विषयवासना जाल के मोचक सद् गुरु की ही शरण लेना आवश्यक है, तू गम्भीर भाव से विचार कर ले, और अति शीघ्र आज्ञा दे दे। ___ माता कोडिमदेवी ने अद्भुत विवेक को देखकर बालक के साथ ही सूरत में विराजमान आचार्य देव के चरणों में जाने के लिये प्रस्थान किया, मार्ग में जगह जगह देव दर्शन गुरु वंदन करते हुए भाव चारित्र को दृढतर करके यथासमय सुरत बंदर पहुँच गये, तथा अपना सुकुमार बालक जयसिंह के साथ कोडिम देवी गुरुदेव को सविधि वन्दना करके विनीत भाव से सांजलि सानुरोध प्रार्थना करने लगी। __ हे प्रभो ! मेरी हार्दिक भावना है कि इस बालक के साथ मैं भी चारित्र ग्रहण पूर्वक अपनी आत्मा का कल्याण कर लू, श्राप For Private and Personal Use Only
SR No.034238
Book TitleJagad Guru Hir Nibandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhavyanandvijay
PublisherHit Satka Gyan Mandir
Publication Year1963
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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