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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चत्तारि पर मंगाणि दुलहाणिय जंतुणो माणुसतं सुइ शद्धा संजमंमिय वीरिअं० ॥१॥ इस गाथा के अर्थ को खूब प्रतिपादन करते हुए प्रभावशाली हृदयस्पर्शी मार्मिक व्याख्यान फरमाया । जनता मन्त्र की तरह मुग्ध भाव से दत्तचित होकर श्रवण करती रही। ऐसा उपदेश निकट भवि पुरुषों के लिए बहुत ही हितकारक हुआ करता है। चूंकि हीरजी के हृदय में भी इस मनोहर उपदेश का पूरा असर पड़ा। व्याख्यान संपूर्ण होने के बाद हीरजी अपनी बहन के पास जाकर के विनययुक्त शब्दों में कहने लगे। हे भगिनी । आज मैंने तपागच्छाधिराज श्री मद्विजयदानसूरीश्वरजी महाराज के मुखारबिन्द से संसार समुद्र से तारने वाली सदा सुख सौभाग्य को देने वाली मनोहर देशना सुनी है। जिससे विरक्त भाव पैदा हो गया है। अब मैं गुरुजी के चरणों में जाकर के श्री भागवती दीक्षा स्वीकार करना चाहता हूँ। अतः मुझे अविलम्ब आज्ञा प्रदान करें। ___ इतने शब्द सुनते ही बहन रोमांचित होकर अश्रुपात करती हुई गद् गद् स्वर में अपने कनिष्ठ प्यारे भाई से कहने लगी। हे प्रिय बन्धो ! हे सरल हृदय वत्स! दीक्षा व्रत तलवार की धार के समान, लोहचने के तुल्य, बड़ा कठिन साध्य है। क्योंकि दीक्षितों को नंगे शिर घूमना पड़ता है। सर्दी या धूप में नंगे पांव चलना पड़ता है। केश लुचित करना पड़ता है। घर घर भिक्षा मांगनी पड़ती है। सूखे लूके नीरस अहार से उदरपूर्ति करनी पड़ती है। बावीश परिषह सहन करने पड़ते हैं । कठोर तपस्याएँ भी करनी पड़ती हैं। तेरा ऐसा शरीर नहीं है जो कि ऐसे कठोर व्रतों को पालन कर सके इस लिये अभी तेरे लिये दीक्षा लेना योग्य नहीं है। भाई मेरा कहना यह है कि प्रथम एक तो कुलीना स्त्री से विवाह करके सांसारिक सुखों का भोग करले । पुत्रोत्पत्ति हो जाने के बाद तेरी इच्छा हो वैसा करना । इस प्रकार नानायुक्ति से समझाने पर भी धैर्यवान हीरजी अपने For Private and Personal Use Only
SR No.034238
Book TitleJagad Guru Hir Nibandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhavyanandvijay
PublisherHit Satka Gyan Mandir
Publication Year1963
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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