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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूरिजी ने कैदियों को सर्वदा के लिये मुक्त करवा दिये और दारु मांस एवं परस्त्री गमन सर्वथा बंद करवा दिया। साथ ही साथ समस्त नगर में कोई जीव हिंसा न करे इसके लिये अभारी पटह बजवा दिया। हबीबुला भी उपरोक्त कार्य करता हुआ अपनी राज्य लक्ष्मी का सव्यय करता हुआ न्याय नीति से प्रजा का पालन करता हुआ अपने को धन्य धन्य समझने लगा। एक समय का जिक्र है कि सामल सागरजी को जगद् गुरुदेव ने गच्छ से बाहर कर दिया था। सागल सागरजी एक गांव गये। इधर जगद् गुरुदेव भी परिभ्रमण करते हुए यहां पर ही आ पहुँचे। उस वक्त सामल सागरजी गुरुदेव के पास में जाकर के कहने लगे गुरुदेव! मेरी जो कुछ गल्ती हई। उसको माफ कर दीजिये और कृपा करके वापिस समुदाय में ले लीजिये । आयन्दा आज्ञा का पालन करूगा। ऐसा कहने पर भी गुरुदेव ने सामील नहीं लिया। तब इसने सोचा कि गुरुदेव मेरी प्रार्थना नहीं स्वीकार करते हैं, तो काशिमखान की बात जरूर मान लेंगे। ऐसा विचार कर नगराधीश काशिमखान को सब कुछ घटना कह सुनाई। इस पर काशिमखान ने सूरिजी को राजमहल में बुलाने के लिये आमंत्रण भेजा । गुरुदेव भी निडरता पूर्वक पहुँचे । राजभवन में लम्बे समय तक धर्म चर्चा के अन्त में जीवहिंसा तथा दारु मांस आदि का सर्वथा परित्याग करवाया। काशिमखान ने कहा कि महाराज! आपके आदेशानुसार मैंने प्रतिज्ञा की है तो एक बात मेरी भी मान लीजिये, गुरुदेव ने उत्तर में कहा कि खुशी से कहिये । अवश्य कहिये, इस पर उसने कहा कि आपही का शिष्य सामलसागरजी को वापिस गच्छ में लेकर के कृतार्थ करें। गुरुदेव ने कहा कि खां साहेब ! आप जानते हैं कि हम लोग शिष्य के लिये सैंकड़ों कोश तक पहुँच जाते हैं। किन्तु क्या किया जाय ? यह मेरी आज्ञा नहीं मानता और अपनी इच्छा के अनुसार परिभ्रमण करता है । इसलिये मुझे अगत्या छोड़ना पड़ा । आप ही कहिये कि For Private and Personal Use Only
SR No.034238
Book TitleJagad Guru Hir Nibandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhavyanandvijay
PublisherHit Satka Gyan Mandir
Publication Year1963
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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