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________________ (३३) भोगना पडता है गरवीण मात्तसुखा, 'बहुकालदुःखा " भोग भोगवना तोदुरा रहा परन्तु भोगोंकि अभिलाषा करनेवालों को भी नरकादि अधोगति होती है। है विप्र यह नासमान सडन पडन विध्वं अन जिन्होंका धर्म है एसा काम भोग जगत में क्रोधमान माया लोभ प्रेम कलेशका मूल स्थान है पूर्व महाऋषियों इन्ही काम भोगोंका बड़ा भारी ठीस्कार किया है। सत्पुरुषोंके आचारने योग नहीं है वास्ते इन्हीं भोगोंकों भुंग समझके ही मैंने परित्याग किया है । इन्ही दश प्रश्नोंद्धार सौधर्मेन्द्र ब्राह्मणके रूपमें 'नमिराजऋषि' कि पारक्षा करो परन्तु आत्माके एक प्रदेश मात्रमें क्षोभ करनेको असमर्थ हुवा तब इन्द्रने उपयोगसे द्रढ धर्मी समझके इन्द्र ने अपना असली रूप बनाके महात्मा नमिराजऋषिकों वन्दन नमस्कार करके बोलता हूवा - हे महा भाग्य आपने निज दुस्मन क्रोधमान माया होमादिकों ठीक कब्जे कर रखा है। हे धीरवीर आपने अपना क्षान्त दान्त भनैव मार्दव च्यारों महासुमटोकों पासमे रखके मोक्षगढ पहुंचनेकि ठीक तैयारी कर रखी है इत्यादि अनेक स्तुतियों करते हुवे इन्द्र अपना मन मुगट और जलहलते कुंडल सहीत अपना शिर मुनिश्रीके चरणकमलोंमें झुकाके नमस्कार करके बोलता हूवा । हे भगवान आप इस लोक में भी उत्तम पुरुष हो कि छते भोगोंकों त्याग कर योग लीमा है और परलोकमें भी आप उत्तम होंगे कि इस संसारका अन्त कर मोक्ष जावेंगे। हे प्रभो आप जगत रक्षणं दीनबन्धु भवतारक स्वपरात्म उद्धारक हों। आपके स्तवनादि करने से मध्यामायका कल्याण होता है इसी माफीक इन्द्रा जन्म पवित्र 4
SR No.034233
Book TitleShighra Bodh Part 11 To 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherRatna Prabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1933
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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