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________________ R बारह प्रकारसे बतलाये है यथा-बहु अल्प, बहुविध, एकविध, क्षिभ, चीर, अनिश्रीत, निश्रित, सन्दिग्ध, असन्दिग्ध, धूव, अधूव,विवरण जैसे शंख, नगारा झालर आदि वाजंत्रके शब्दों में से भयोपशमकी विचित्रताके कारणसे कोइ जीव बहुतसे वार्जित्रोंके शब्दाको अलग अलग सुनते है १ कोइ जीव स्वल्प हा सुनते है २ कार जाप उन बाजीत्रोके स्वर तालादि बहुत प्रकारसे जानते है ३ ३ कोइ जीव मंदतासे सब शब्दोंकों एक वाजिंत्रही जानते है ४ कोह जीव शीघ्र-जलदीसे सुनता है ५ कोइ जीव देरीसे सुनता है६ कोइ जीव ध्वजाके चिन्हसे देवमन्दिरको जानता है ७ कोहनीव विगर पत्ताका अर्थात् विगर चिन्हसे ही वस्तुको जान लेता है८ कोइ जीव संशय सहित जानता है ९ कोइ जीव संशय रहित जानता है १० कोह जीवकों जसा पहला ज्ञान हुवा है वैसा हो पीछे तक रहता है उसे ध्रवज्ञान कहते है ११ कोइ जीवकों पहले ओर पीच्छे में न्यूनाधिकपणेका विशेषपणा रहता है एवं २८ को १२ गुणा करनेसे ३३६ तथा अश्रुत निश्रितके ४ भेद मीका देनेसे ३५० भेद मतिज्ञानके होते है इनके सिवाय जातिस्मरणादि ज्ञान जो पूर्व भव संबन्धी ज्ञान होना यह भी मति झानका ही भेद है एसे विचित्र प्रकारका मतिज्ञान है जावोंको जैसा जैसा क्षयोपशम होता है वैसी वैसी मति होती है। मतिज्ञानपर शास्त्रकारोंने दो दृष्टान्त भी फरमाया है यथा एक पुन्यशाली पुरुष अपनी सुखशय्याके अन्दर सुता हुवाथा उसे कीसी दुसरा पुरुषने पुकार करी उसके शब्दके पुद्गल सुते हुचे पुरुष के कानोंमें पडे बह पुद्गल न एक समयके स्थितिके थे . यावत् न संख्याते समयेकि स्थितिके थे किन्तु असंख्याते सम यकि स्थितिके पुदगल थे अर्थात् बोलनेमे असंख्यात समय लगते है तदनन्तरवह पुद्गल कोनोंमें पड़ने को भी असंख्यात समय चाहिये। सुता हुषा पुरुष पुद्गलोंको ग्रहन किया उसे 'उगृहमतिज्ञान' कहते .
SR No.034232
Book TitleShighra Bodh Part 06 To 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherVeer Mandal
Publication Year1925
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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