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________________ ( ३५८) शीघ्रबोध भाग ५ वा. की भिन्न २ व्याख्या करते है जिसमें मोहनीय कर्भ समुच्चय पाप कर्मवत् समझ लेना. ज्ञानावरणीय कर्म को पूर्व कहे हुए बीस बोलोंमें से सकपायी और लोभ कषायी, यह दो बोलों को छोडकर शेष अठारा बोलोंके जीव पूर्वोक्त चारो भांगोंसे बांधे (पूर्वमें जो कुछ कह आये है. और आगे जो कुछ कहेंगे, यह सब बातें गुणस्थानक से संबध रखती है. इसलिये पाठकों को हरेक बोल पर गुणस्थानक का उपयोग रखना अति आवश्यक है, विना गुणस्थानक के उपयोगी वाते समझ में आना मुश्किल है. ) अलेशी, केवली, और अयोगी, में भांगा १ चोथा. बांधा, न बांधे, न बांधसी. मिश्रदृष्टि में मांगा २ पहिला और दूसरा पूर्ववत् अकषायी में भागा २ तीसरा और चौथा पूर्ववत् शेष चौवीस बोलों ( बावीस पापकर्म की व्याख्या में कहा वह और सकषायी, लोभ कषायी ) में भागा २ पहिला और दूसरा पूर्ववत् थह समुच्चय जीव की अपेक्षा से कहा. इसी तरह मनुष्य दंडक में समझ लेना. शेष तेवीस दंडक के जीवों में दो मांगों (पहिला और दूसरा ) जैसे ज्ञानावरणीय कर्म बांधे. एवम् दर्शनावरणीय नाम कर्म, गोत्रकर्म और अंतराय कर्म का भी बंध आश्रयी भांगा लगालेना-संबन्ध सादृश है । ___ समुच्चय जीवों की अपेक्षा से वेदनीय कर्म को, समुच्चय जीव, सलेशी, शुक्ललेशी, शुक्लपक्षी, सम्यकदृष्टि, संज्ञानी केवल ज्ञानी. नोसंज्ञा, अवेदी, अकषायी, साकार उपयोगी, और अनाकार उपयोगी, इन (१२) बारहा बोलों के जीवो में तीन भांगा
SR No.034231
Book TitleShighra Bodh Part 01 To 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherSukhsagar Gyan Pracharak Sabha
Publication Year1924
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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