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________________ (६०) शीवबोध भाग १ लो. थोकडा नम्बर १७ (मत्र श्री जम्बुद्विप प्रज्ञप्ति--छे आरा.) भगवान् वीरप्रभु अपने शिष्य इन्द्रभूति अनगार प्रति कहते है कि हे गौतम इन आरापार संसारके अन्दर कम प्रेरित अनंते जीव अनंते काल से परिभ्रमन कर रहे है कालकि आदि नही है. और अंत भी नहीं है. भरत-ऐरवतक्षेत्रकि अपेक्षा अवसर्पिणी उत्सर्पिणी कही जाती है वह दश कोडाकोड मागरोपमकि अवसर्पिणी और दश कोडाकोड सागरोपमकी उत्सर्पिणी एवं दोनों मीलके वीस कोडाकोडी सागरोपमका कालचक्र होता है एवं अनंते कालचक्रका एक पुद्गल परावर्तन होता है एसे अनंते पुद्गल परावर्तन भूतकालमें हो गये है और भविष्य में अनन्ते पुद्गल परावर्तन हो जायगा. हे गौतम में आज इन भरतक्षेत्र में अवसर्पिणी कालका ही व्याख्यान करता हुं हुं एकाग्रचित्त कर श्रवण कर। एक अवसर्पिणी काल इश कोडाकोड सागरोपमका होता है जिस्के छ विभाग रूपी छे आरा होते है यथा--(१) सुखमा सुखमा ( २) सुखमा ( ३ ) सुखमा दुःखमा ( ४ ) दुःखमा सुखमा (५) दुःखमा (६) दुःखमा दुःखमा इति छे आरा । (१) प्रथम सुखमा सुखम आरा च्यार कोडाकोड सागरोपमका है इस आराके आदिमे यह भारतभूमि वडी ही सम्य रमणिय सुन्दराकार और सौभाग्यको धारण करनेवाली थी. पाहाड पर्वत खाइ खाडा याने विषमपणाकर रहित इन भूमिका "विभाग पांच प्रकार के रत्न से अच्छा मंडित था. चोतर्फसे वन
SR No.034231
Book TitleShighra Bodh Part 01 To 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherSukhsagar Gyan Pracharak Sabha
Publication Year1924
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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