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________________ नत्याध्यायः २१. वाहुबन्धलोहडी गजदन्तयुता त्वेषा बाहुबन्धादिलोहडी ॥१३३६॥ . जिस लोहडी में गजदन्त नामक हाथ का प्रयोग किया जाता है, वह बाहुबन्धलोहडी कहलाती है । २२. कर्तरीलोहडी __ स्वस्तिकाघ्रि कृता त्वेषा कर्तरीलोहडी मता ॥१३३७॥ 1382 जो लोहडी स्वस्तिकाकार पैरों से की जाती है, वह कर्तरीलोहडी कहलाती है । २३. समकर्तरीलोहडी . प्रादौ प्रान्ते च यस्याः स्तः समौ स्वस्तिकतां गतौ । पादौ सा लोहडी ज्ञेया समकत्तरिपूर्वका ॥१३३८॥ 1383 जिस लोहडी के आदि और प्रान्तभाग में दोनों सम नामक पैर स्वस्तिक मुद्रा को धारण करें, वह समकर्तरीलोहड़ी कहलाती है। २४. चतुर्मुखलोहडी लोहडी या चतुर्दिक्षु सा चतुर्मुखलोहडी ॥१३३६॥ जो लोहडी चारों दिशाओं में की जाती है, वह चतुर्मुख लोहडी कहलाती है। २५. अलगाञ्चित कृत्वालगं यदावेगादञ्चितं रचयेन्नटः। 1384 तदालगाश्चितं ज्ञेयं सद्धिरन्वर्थनामकम् ॥१३४०॥ जब अलग करण की रचना करके नट वेग से अञ्चित पैर की रचना करता है, तब सज्जन लोग उसे अर्थ के अनुरूप नाम वाला अलगाञ्चित करण समझते हैं। २६. जलशयन जलादिशयनं तत्स्याद्यत्रास्ते जलशायिवत् ॥१३४१॥ 1385 जिस करण में, जल में सोने वाले की तरह अवस्थित होना पड़ता है, उसे जलशयन करण कहते हैं। २७. दर्पशरण ___ वैष्णवस्थानमाधाय पतेत्पावन चेद् भुवि । तदाचष्ट नृपो दर्पशरणं वीरसिंहजः ॥१३४२॥ 1386 यदि वैष्णव स्थानक का आश्रय लेकर बगल से पृथ्वी पर गिरा जाय, तो राजा वीरसिंह के पुत्र अशोकमल्ल ने उसे दर्पशरण करण कहा है। ३४०
SR No.034223
Book TitleNrutyadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokmalla
PublisherSamvartika Prakashan
Publication Year1969
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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