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________________ चारियों का निरूपण चारी (चेष्ठाकृतिविशेष भावाभिव्यंजन) गत्यर्थाच्चरते[र्धातोभावेऽर्थे करणेऽथवा । अस्त्रीजातौ ततः ङोषि सत्ति चारोति सिध्यति ॥४६॥ 966 गमनार्थक चर् घातु से भाव अथवा करण अर्थ में अण् प्रत्यय तथा जीष् होने पर स्त्रीलिंग में चारी प्रयोग निष्पन्न होता है। या नर्तनेऽध्रिजकोरुकटिना युगपत्कृतः । चेष्टाकृतिविशेषः सा चारी सद्धिरुदीरिता ॥५०॥ 967 नृत्यकाल में पैर, जंघा, उरु और कटि द्वारा एक साथ जो चेष्ठाकृतिविशेष भावाभिव्यंजन होता है, विद्वानों ने उसे चारी नाम से कहा है। चारियों के भेद व्यायच्छत्तो मिथश्चार्यो यद्यथालक्ष्म निर्मिताः । अङ्गोपेतास्ततोऽन्वर्थो व्यायामः स चतुर्विधः ॥६५१॥ 968 चारी च करणं खण्डो मण्डलं च क्रमादिति । स्यादेकाध्रिप्रचारो यः सा चारी परिकीर्तिता ॥५२॥ 969 द्वयध्रिप्रचारः करणं खण्डस्तु करणस्त्रिभिः । खण्डस्त्रिभिश्चतुर्भिर्वा मण्डलं स्यात् क्रमेण तु ॥५३॥ 970 त्र्यस्त्रे ताले सद्भिरेतच्चतुरस्र तथोदितम् ।। अंगों के परस्पर प्रचार-प्रसार के अनुसार चारियों की रचना होती है। इसलिए अर्थानु रूप (अन्वर्थ) उसे व्यायाम भी कहा जाता है, जो कि चार प्रकार का होता है : १. चारी, २.करण, ३. खण और ४. मडल। एक पैर के संचरण को चारी, दोनों पैरों के संचरण को करण, तीन करणों के एक साथ संचरण को खण और तीन २५९
SR No.034223
Book TitleNrutyadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokmalla
PublisherSamvartika Prakashan
Publication Year1969
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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