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________________ नृत्याध्यायः प्रसकृद् यत्र तत् प्रोक्तं वर्तनास्वस्तिकं तदा । श्रथवेदं त्रिखण्डोक्तवर्तनाभिर्भवेदिति ॥ ७७४ ॥ 774 यदि एक हाथ बिजली की आकृति धारण करके, अर्थात् विद्युल्लता के समान, बगल में चक्कर लगाये और दूसरा हाथ उसका अनुगमन करते हुए बार-बार उससे जुट जाय तथा हट भी जाय, तो उसे वर्तनास्वस्तिक चालन कहते हैं । उसे त्रिखण्डोक्तवर्तनाओं द्वारा सम्पन्न किया जाय । ६. संमुखीनरथांग तिर्यग्विततरेचितौ । परस्परमुखीभूय विधाय पार्श्वयोरन्तरावृत्ती तीक्ष्णकूर्परौ ॥७७५॥ 775 रेचितौ पूर्ववद् यत्र हस्तौ मञ्जुलतान्वितौ । सम्मुखीनरथाङ्गं तच्चालनं परिकीर्तितम् ॥७७६ ॥ 776 जहाँ दोनों रेचित हस्तों को सुन्दर ढंग से एक-दूसरे के आमने-सामने फैलाकर दोनों पावों में दोनों नोकीली कोहनियों को चलाया जाय, वहाँ उसे संमुखीनरयांग कहा जाता है । ७. पुरोदण्डभ्रम तिर्यङमुष्टि विधायक पश्चादस्यैव चेद्वहिः । अन्तश्च लीलयान्यस्मिन् लुठिते सति हस्तयोः ॥ ७७७॥ पुरस्तान्निसृतिर्यत्र पर्यायेण तदीरितम् । पुरोदण्डभ्रमाख्यं तच्चालनं प्राच्यसूरिभिः ॥ ७७८ ॥ 777 778 जहाँ दोनों हाथों में से एक को मुष्टि हस्त बना कर पश्चात् उसी के बाहर या भीतर लीलापूर्वक दूसरे हाथ को लोटा दिया जाय और अनुक्रम से आगे निकाल दिया जाय, तो पूर्वाचार्यों ने उसे पुरोदण्डभ्रम चालन कहा है। ८. त्रिभंगीवर्णसारक पूर्वे पार्श्वे ततः पञ्चाद् विदिश्यपि पदक्रिया । करयोर्जायते यत्र युगपत् *मतोऽथवा । त्रिभङ्गीवर्णसारकं चालनं तदुदीरितम् ॥७७॥ जहाँ दोनों हाथों का संचालन पूरब में, अगल-बगल में तथा दो दिशाओं के अन्तराल में एक साथ या क्रमशः किया जाता है, वहाँ वह त्रिभंगीवर्णसारक चालन कहलाता है । १२२ 779
SR No.034223
Book TitleNrutyadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokmalla
PublisherSamvartika Prakashan
Publication Year1969
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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