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________________ ७२ इन सब दृष्टियों से विश्वनाथ का व्यक्तित्व, वैदुष्य एवं व्यापकता का प्राभास सहज हो जाता है। [११] साहित्य-दीपिका-भास्करभट्ट' ( चौदहवीं शती ई.) भास्कर भट्ट की प्रस्तुत टीका के बारे में श्रीवत्सलाञ्छन, गोविन्द ठक्कुर, भीमसेन रलकण्ठ तथा परमानन्द चक्रवर्ती ने उल्लेख किया है। अतः ये इन सब से प्राचीन हैं। इसी आधार पर इनका समय ईसा की चौदहवीं शताब्दी माना गया है। म०म० पी०वी० कारणे ने इस 'साहित्य-दीपिका' टीका का ही अपर नाम 'काव्यालङ्काररहस्य-निबन्ध' माना है, जब कि कविशेखर श्री बद्रीनाथ झा आदि अन्य विद्वानों ने इस निबन्ध का रचयिता लाटमास्कर मिश्र को माना है। 'काव्यप्रकाशे टिप्पण्यः सहस्र सन्ति यद्यपि' यह उक्ति भट्ट भास्कर की ही है। इस टीका के कुछ अंश राजेन्द्रलाल मित्र की 'नोटिसेस आफ एम० एस० एस०' १-१० में प्रकाशित हुए हैं । [१२] लघुटोका- श्रीविद्याचक्रवर्ती ( १४वीं शती ई०) इस टीका का उल्लेख लेखक ने अपनी बहट्टीका' (पृ० ६२) तथा अलङ्कारसर्वस्व की 'सञ्जीविनी टीका (पृ० ३७) में किया है । विशेष परिचय 'बृहट्टीका' के परिचय में प्रागे दिया है । [ १३ ] सम्प्रदाय-प्रकाशिनी (बृहट्टीका)- श्रीविद्याचक्रवर्ती ( १४वीं शती ई०) ये शंव मतावलम्बी दक्षिण भारत के लेखक हैं। इन्होंने रुय्यक के 'अलंकार-सर्वस्व' की 'सञ्जीवनी' टीका के अन्त में - काव्यप्रकाशेऽलङ्कार-सर्वस्वे च विपश्चिताम् । प्रत्यादरो जगत्यस्मिन् व्याख्यातमुभयं ततः ॥ इत्यादि लिखकर उक्त टीका का निर्देश किया है। मद्रास कैटलॉग में सख्या १ ८२६.२८ पृ० ८६२७, बर्नल ५५, संस्करण (त्रिवेन्द्रम् संस्कृत सीरिज-पृ० १६२) में 'बृहती' का उल्लेख है। इसी टीका में इससे पूर्व लिखित 'लघुटीका' की सूचना प्राप्त होती है। मल्लिनाथ के निर्देशानुसार इनका समय १४वीं शती के अन्त से पूर्व निर्धारित किया गया है। ये १४वीं शती के प्रारम्भ में श्रीबल्लाल तृतीय (१२६१-१३४२) के सभारत्न थे। (वी. राघवन् A BORT x १६३३, पृ० २५६)। इन्हीं को 'रस-मीमांसा' रस-विषयक तथा 'भरत-संग्रह' नाटयविषयक ग्रन्थों का लेखक भी माना गया है। सम्प्रदाय-प्रकाशिनी' के अन्त में इन्होंने लिखा है कि सम्यक समापिता सेयं श्रीविद्याचक्रवतिना । टोका काव्यप्रकाशस्य सम्प्रदाय-प्रकाशिनी ॥ काव्यप्रकाशेऽलङ्कारसर्वस्वे च सचेतसाम । येनादरो महांस्तेन व्याख्यातमुभयं सह ॥ यस्मिन्नशे झटिति न मवत्यर्थसंवित्तिरस्यां, सोंऽशो मूले विषमविषमो मूलमालोक्य भूयः । तत्सङ्गत्या पुनरिह मनाग दृष्टिराधीयते चेद्, भावः सूक्ष्मो व्रजति विदुषां हस्तमुक्तामरिणत्वम् ॥ सूक्ष्मामव्याकुलामत्र शास्त्र युक्त्युपबंहिताम् । मीमांसामुपजीवन्तु कृतिनः काव्यतान्त्रिकाः ।। १. न्यू केटलागस केटलागरम में 'मिश्र' लिखा है। द्वि० भा० २. डॉ. एस के० डे ने इनका समय पन्द्रहवीं शती की समाप्ति से पूर्व का माना है।
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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