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________________ ५० यह ग्रन्थ दस परिच्छेदों में विभक्त है। यह युवक नरेश कामिराय प्रथम बंगनरेश की प्रेरणा से लिखा गया था । काव्यशास्त्रीय - परम्परा के ग्रन्थों की रचना-प्रक्रिया से कुछ भिन्न प्रकार से इस ग्रन्थ का प्रारम्भ हुआ है। प्रथम परिच्छेद में 'वर्णगरणफलविचार' ६३ पद्यों में किया गया है । कविशिक्षा की दृष्टि से यह उपादेय है । द्वितीय परिच्छेद में - काव्यगत शब्दार्थ निश्चय, काव्यहेतु कथन, १- रौचिक २ वाचिक, ३-प्रार्थ, ४- शिल्पिक, ५ मार्दवानुग, ६ - विवेकी ७- भूषणार्थी नामक सात प्रकार के कवि तथा ४ प्रकार के अर्थो का निरूपण किया गया है । इसमें ४२ पद्य हैं । तृतीयपरिच्छेद १३० पद्यों का है जिसमें 'रस-भाव- निश्चय' को प्रमुखता दी गई है। चतुर्थ परिच्छेद में १६३ पद्यों द्वारा नायक-नायिकाभेदों का निश्चय प्रस्तुत हुआ है । पञ्चम परिच्छेद में 'दशगुणनिश्चय' ३१ पद्यों में किया गया है। षष्ठ, सप्तम और अष्टम परिच्छेदों में क्रमशः रीति, वृत्ति और शय्या-पाक आदि का वर्णन १७, १६ और १० पद्यों में है । नवम परिच्छेद में 'अलङ्कार निर्णय' की दृष्टि से चार शब्दालङ्कार और चालीस प्रर्थालङ्कारों का १३० पद्यों में विवेचन हुआ है । अन्तिम दसवां परिच्छेद 'गुणदोषनिर्णय' नामक है। जिसके १६७ पद्यों में पद, वाक्य और प्रर्थदोष तथा गुणों का निरूपण किया गया है। इस ग्रन्थ का प्रकाशन 'भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी, ने किया है । ११. श्रलङ्कार-संग्रह — इसके रचयिता श्री अमृतनन्दि हैं। इसके छह प्रकरणों में क्रमशः १ - वर्णगरण विचार, २- शब्दार्थनिर्णय, ३-रसवर्णन, ४- नेत्रभेदनिर्णय, ५ - प्रलंकारनिर्णय तथा ६ - गुणनिर्णय' का विवेचन किया गया है। इस कृति की पाण्डुलिपियों के बारे में 'जिनरत्नकोश' के भाग १, पृ०१७ में उल्लेख है । १२. काव्यलक्षरण - जैनग्रन्थावली ( पृ० ३१६) में इस अज्ञातकर्तृक कृति का उल्लेख है तथा इसका आकार २५०० श्लोक प्रमाण बताया | अन्य विशेष जानकारी नहीं मिल पाई है । १३. काव्याम्नाय - जैन ग्रन्थावली ( पृ० ३१५ ) में २० पत्रवाली इस कृति के निर्माता अमरचन्द्र का उल्लेख है किन्तु जिनरत्नकोश (खण्ड १, पृ. ६१ ) में इसके बारे में यह संशय किया गया है कि यह जयदेव के चन्द्रालोक की टीका भी हो सकती है ? १४. प्रक्रान्तालङ्कार-वृत्ति - जिनहर्ष के शिष्य द्वारा रचित इस कृति का उल्लेख 'जिनरत्नकोश' ( खण्ड १, पृष्ठ २५७ ) में किया गया है और बताया गया है कि इसकी ताडपत्रीय प्रति पाटण- गुजरात के भण्डार में है । १५. कर्णालङ्कार- मञ्जरी - जैनग्रन्थावली ( पृ० ३१५) में ७० पद्यों की इस कृति का उल्लेख करते हुए इसके कर्ता का नाम त्रिमल्ल दिया है। किन्तु जिनरत्न कोश में इसका नाम नहीं है । १६. अलङ्कार - चूर्णि अलङ्कारावचूरि-- जिनरत्नकोश ( खण्ड १, पृ. १७) में यह कृति उल्लिखित है । यह पृष्ठ की लघु कृति है । ३५० पद्यों की प्रायः १५०० श्लोक प्रमाण पाँच परिच्छेदवाली इस कृति में मूलकृति के प्रतीक भी दिए गए हैं। इसके प्रारम्भ भाग से ज्ञात होता है कि इसमें रस, नायक-नायिकाभेद आदि का विवेचन होगा । । १७. रूपकमञ्जरी - गोपाल के पुत्र रूपचन्द्र की १०० वली ( पृ० ३१२) में किया है। जिनरत्नकोश में इसका नाम नहीं है नाममाला' के नाम पर यह परिचय दिया हुआ है । यह रचना ई० स० की जाती है कि इसमें रूपक अलंकार के सम्बन्ध में विवेचन होगा ! श्लोक प्रमाणवाली इस कृति का उल्लेख जैन ग्रन्था किन्तु ( खण्ड १, पृ० ३३२ ) में 'रूपकमञ्जरी १ ८७ की है । नाम के आधार पर यह कल्पना १८- २०. रूपकमाला -- यह उपाध्याय पुण्यनन्दन की कृति है तथा इस पर समयसुन्दर गरिए ने सन् १६०६ में टीका भी लिखी है।
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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