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________________ ४८ यह ग्रन्थ पांच अध्यायों में विभक्त है। प्रथम अध्याय में-काव्य सम्बन्धी विषयों का निरूपण है जिनमें 'प्रयोजन, हेतु, कविसमय, लक्षण, गद्य-पद्यादि भेद, महाकाव्य, आख्यायिका, कथा, चम्पू और मिश्रकाव्यों के लक्षण तथा दस रूपक, गेय प्रादि का विवेचन है। द्वितीय अध्याय में पदगत और वाक्यगत दोष एवं दस गुणों की चर्चा है। तीसरे अध्याय में तिरसठ अर्थालंकारों का निरूपण है जिनमें 'अन्य, अपर, आशिष, उभयन्यास, पिहित, पूर्व, भाव, मत और लेश' नामक अलंकार भी हैं जो अन्यत्र प्रचित हैं। चौथा अध्याय शब्दालंकारों का निरूपक है। इसमें चित्र, इलेष अनुप्रास, वक्रोक्ति, यमक और पुनरुक्तवदाभास के प्रकार एवं उपप्रकारों का विवेचन है । पाँचवें अध्याय में रस, विभाव अनुभाव और व्यभिचारीभाव, नायक-नायिका-प्रकार, काम की दस दशाएं तथा रस-दोषों की चर्चा है। मुख्यत यह सूत्रात्मक शैली में निर्मित है। १. स्वोपज्ञवृत्ति-ग्रन्थकार ने अपने प्राशय को व्यवस्थित रूप से समझाने के लिये स्वयं वृत्ति की रचना भी की है तथा उसमें काव्यप्रकाश, काव्यमीमांसा, वाग्भटालंकार, नेमिनिर्वाण काव्यादि अनेक ग्रन्थों का उपयोग किया है। ६. अलङ्कारसार-यह कृति 'अलङ्कारसङ्ग्रह' और 'काव्यालङ्कारसार-सङ्कलना' नाम से भी पहचानी जाती है । सन् १३५५ ई. के निकट इसकी रचना 'खण्डिल' गच्छ के प्राचार्य भावदेव सूरि ने की है। इसमें पाठ अध्याय हैं जिनमें क्रमशः ५, १५, २४, २५, ४६, ५ तथा ८ पद्य हैं। इस प्रकार कूल १३३ पद्यों की यह लघु कृति काव्य के सभी . अङ्गों पर प्रकाश डालती है। इसके पहले अध्याय में -काव्य का फल और काव्य का स्वरूप' विवेचित है। दूसरा अध्याय-शब्द और अर्थ के स्वरूप' का निरूपक है। तीसरे अध्याय में-शब्दगत और अर्थगत दोष बतलाये हैं। चौथे में गुणों पर प्रकाश डाला है। पांचवें में शब्दालंकार और छठे में अर्थालङ्कारों का निरूपण हुआ है। सातवें में रीति और पाठ में भाव-विभाव और अनुभावों का स्वरूप प्रालिखित है। इन विषयों के आधार पर ही अध्यायों के नामों की भी योजना की गई है। इसकी प्रत्येक पुष्पिका में कर्ता ने स्वयं को 'कालकाचार्य-सन्तानीय' कहा है तथा अन्त में 'प्राचार्य भावदेव' के नाम से अपना परिचय दिया है। प्राचार्य भावदेव ने पार्श्वनाथ-चरित्र' (संस्कृत) जइदिणचरिया' तथा 'कालककहा' (प्राकृत) की भी रचनाएं की हैं। 'अलङ्कार-सार' का प्रकाशन 'गायकवाड़ ओरियण्टल सीरिज बड़ौदा' से प्रकाशित 'अलङ्कार-महोदधि' ग्रन्थ के परिशिप्ट में हुआ है।' अलङ्कार-मण्डन-मण्डनान्त आठ कृति, 'कवि-कल्पद्रम-स्कन्ध' और 'चन्द्रविजय' के रचयिता के रूप में प्रसिद्ध गृहस्थ मन्त्री मण्डन की यह कृति १४२८ ई० के लगभग निर्मित है। यह पाँच परिच्छेदों में विभक्त है। इसमें काव्य के लक्षण, प्रकार, रीति, दोष, गुण, रस और अलङ्कारों का विमर्श दिया है। इनकी अन्य रचनाएं १. उपसर्गमण्डन (व्याकरण), २. कादम्बरी-मण्डन ३. काव्य-मण्डन, ४. चम्पू-मण्डन, ५. शृङ्गार-मण्डन, ६. सङ्गीत-मण्डन और ७. सारस्वत-मण्डन' हैं । महेश्वर नामक कवि ने अपनी काम्य-मनोहर नामक कृति में मन्त्री मण्डन के चरित्र का ग्रथन किया है। प्रस्तुत 'अलंकार-मण्डन' और कुछ अन्य कृतियाँ 'हेमचन्द्राचार्य समा'-पाटण (गुजरात) से १९७५ ई. में छप चुकी हैं । इनकी पाण्डुलिपियाँ भी वहीं के भण्डार में सुरक्षित हैं। १. इस ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद सहित सम्पादन स्वतन्त्र रूप से इन पंक्तियों के लेखक ने किया है, जी प्रकाशनाधीन है।
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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