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________________ ४२ चार विषयों पर जैनाचार्यों ने कार्य किया है। टीकाएँ ३१ तथा जैनाचार्यों के ग्रन्थों की टीकाएँ प्राचार्यों ने भी कुछ साहित्यशास्त्र पर लिखा है' परिचय इस प्रकार है इस तालिका के अनुसार यह स्पष्ट हो जाता है कि मूलतः कविशिक्षा, अलङ्कार, नाट्यशास्त्र और छन्द इन इनमें मूल ग्रन्थों की संख्या ४५, स्वोपज्ञ टीकाएं १३ जेनेतर ग्रन्थों की २३ हैं जो कुल मिला कर ११२ की संख्या तक पहुँचती है। आधुनिक और यह क्रम चल ही रहा है । इन ग्रन्थों और ग्रन्थकारों का क्रमिक [१ - कविशिक्षा प्रन्थ और प्रत्यकार ] १. कविशिक्षा जैन सम्प्रदाय के प्राचायों की काव्यशास्त्रीय कृतियों में यह सर्वप्रथम कृति श्रीमयमट्टि सूरि द्वारा ई० स० ७६३ के निकट रचित है। इसका सूचन विनयचन्द्र सूरि कृत 'कविशिक्षा' से प्राप्त होता है । वहाँ प्रारम्भ में कहा गया है कि - " बप्पभट्टि गुरु की वाणी में विविध शास्त्रों को देखकर मैं 'कविशिक्षा' कहूँगा ।" इसी आधार पर अनुमान किया जाता है कि 'वप्पभट्टि' ने 'यह ग्रन्थ लिखा होगा। इनकी ग्रन्थ रचनाओं में तारागण महाकाव्य' और 'चतुर्विंशतिका' भी स्मरणीय हैं किन्तु अब 'चतुविशतिका' के अतिरिक्त अन्य कोई रचना उपलब्ध नहीं है। २. कचिशिक्षा श्रीजयमङ्गल मूरि की यह कृति १९४३ ई. के लगभग निर्मित है। इसमें ३०० श्लोक प्रमाण में तत्कालीन नृपति सिद्धराज जयसिंह की स्तुति में निर्मित पर्योों के दृष्टान्त देते हुए कविशिक्षा की चर्चा की गई है। प्रो. पिटर्सन ने इस कृति के प्रारम्भ और अन्त के कुछ पद्यों का उद्धरण अपनी रिपोर्ट पृ० (७८.६०) में दिया है । यह कृति ताडपत्रीय पाण्डुलिपि के रूप में सम्भात (गुजरात) स्थित शान्तिनाथ भण्डार' में सुरक्षित है। ३. काव्यकल्पलता - वायड गच्छीय जिनदत्त सूरि के शिष्य 'अमरचन्द्र सूरि' और 'अरिसिंह' इन दोनों की यह कृति है। इसका रचनाकाल १२२७ ई. माना जाता है। चार प्रदानों में विभक्त प्रायः ४५२ पयों की इस कृति के पहले छन्दः सिद्धि प्रतान में ५ स्तबक हैं, जिनमें १ - अनुष्टुप् शासन, २- छन्दोऽभ्यास, ३- सामान्य शब्दक, ४- वाद तथा ५-स्थिति-विषयों पर विस्तार से विवेचन हुआ है। द्वितीय प्रतान में चार स्तबक है जिनमें शब्दों की व्युत्पत्ति, अनुप्रास सम्बन्धी शब्दसङ ग्रह तथा अन्य आवश्यक वाक्यों का संग्रह दिया हैं अतः इसका नाम 'शब्दसिद्धि' प्रतान रखना उचित ही है। तृतीय श्लेष सिद्धि' प्रदान में शब्दों के भिन्न-भिन्न पर्व, लिष्ट शब्द संग्रह तथा चित्रकाव्यादि को ५ स्तबकों में व्यक्त किया है। चौथे 'प्रसिद्धि' प्रतान में किस वस्तु का किस वस्तु के साथ साम्य दिखलाना चाहिये. इससे सम्बन्धित विषय को सात स्तबकों में प्रस्तुत किया है। इस ग्रन्थ पर हुई टीकाओं का परिचय इस प्रकार है (१) कविशिक्षा (वृत्ति) - यह ३३५७ श्लोक प्रमाण स्वोपज्ञवृत्ति है। इसमें मूलग्रन्थ के विषयों को स्पष्ट करने की दृष्टि से दोनों श्राचार्यों ने पर्याप्त विस्तार किया है। इसी में ग्रन्थकारों की क्रमशः 'काव्यकल्पलता - परिमल, काव्यकल्पलता-मञ्जरी, लङ्कार प्रबोध तथा छन्दोरत्नावली' नामक अन्य चार रचनाओं का उल्लेख भी है। (२) काव्यकल्पलता - परिमल - यह ११२२ श्लोक प्रमाण द्वितीय स्वोपज्ञ वृत्ति है । डॉ० डे० ने इसे मूलग्रन्थ का संक्षिप्त रूप अथवा पूरक ग्रन्थ भी कहा है (सं. का. शा. का इति पृ. २४२ प्रथम भाग ) । १. आचार्य धर्मपुरुषरसूरि विरचित साहित्य-शिक्षा मञ्जरी' भाग १-२ का इसमें समावेश किया जा सकता है।
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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