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________________ - इसीलिए साधक कवि भगवती सरस्वती से थिरकती हुई सूक्तियों की कामना करते थे' और सर्वत्र सूक्ति, सुभा. षित और काव्य समानार्थक बनकर प्रयुक्त होते थे। ये ही सूक्तिगर्भ रचनाएँ उत्तरोत्तर विकसित होकर काव्य के प्रमुख उपादान शब्द के श्रव्य-धर्म और अर्थ के भावो दबोधन-धर्म को अधिक प्रश्रय देती हुईं भावनाओं का उद्दीपन, अनुरञ्जना एवं अलङ्करण को आत्मसात् करने लगी। 'काव्य' का कलेवर एवं उस कलेवर का रचना-विधान परिष्कृत रूप लेकर प्रकट होने लगा। इसका एक अच्छा परिणाम यह भी निकला कि-'प्रारम्भ में कवि केवल उपदेशक माना जाता था, वह अपनी अभिव्यञ्जना-शैली के कारण सम्मोहन-मन्त्र-पाठक बन गया । उसकी वाणी का तात्पर्य ज्ञात न होनेपर भी लोग चित्रवत् स्थित होकर उस का आनन्द लेने लगे । कविवर जगद्धर ने ठीक ही कहा हैशब्दार्थमात्रमपि ये न विदन्ति तेऽपि, यां मर्छनामिव मृगाः श्रवणैः पिबन्तः । संरुद्ध-सर्वकरण-प्रसरा भवन्ति, चित्रस्थिता इव कवीन्द्रगिरं नुमस्ताम् ॥ -स्तुति कुसुमाञ्जलि ५। १७ । काव्यशास्त्र का उदय और परम्परा 'जब वस्तु का विस्तार होता है तो ग्राहक-वर्ग उसकी तरतमता का विचार करता है।' अनवरत काव्य सृष्टि ने सहृदय श्रोताओं को तथा पाठकों को उसके अतिशय गुणों को परखने के लिए प्रेरित किया । फलतः विभिन्न तत्त्वज्ञों ने काव्य के मामिक तत्त्व इंढ निकाले । 'ध्वन्यात्मकता, लयात्मकता, लाक्षणिकता, सानुप्रासिक शब्दयोजना, आलङ्कारिक उक्तिवक्रता, स्वाभाविकता, प्रभावोत्पादकता' आदि अनेक विचार काव्य-चिन्तन के सन्दर्भ में प्रस्तुत हए और स्वरूप मातहभतामहो ! तिमयी नादक-रेखामयी, सा त्वं प्राणमयी हुताशनमयी बिन्दु-प्रतिष्ठामयी। 'तेन त्वां भुवनेश्वरी विजयिनी ध्यायामि जायां विमोस्त्वत्कारुण्य-विकाशिपुण्यमतयः खेलन्तु मे सूक्तयः ॥ ५ ॥ __ -भुवनेश्वरी स्तोत्र २. कस्त्वं भोः ! कविरस्मि काऽप्यभिनवा सूक्तिः सखे ! पठ्यताम् । -काव्यमीमांसा पृ० ३३ ३. नतत्त्व-वैज्ञानिक काव्य का उदय आदिम मानव की तन्त्रमन्त्रात्मक भाषा से मानते हैं और प्रभाव को दृष्टि से अनेक प्रगतिवादी पालोचक काव्य को 'आदिम भावाभिव्यञ्जन-प्रणाली' (Primitive Mode of expression) घोषित करते हैं। मन्त्र-भाषा की तरह काव्य-भाषा में भी श्रोता को सम्मोहित करने की अपूर्व शक्ति पाई जाती है । इस सम्मोहन-प्रक्रिया में काव्य की लय, पदशय्या, वीप्सा, अनुप्रास, अप्रस्तुत और बिम्ब मुख्य हाथ बटाते हैं, वे श्रोता को कुछ क्षणों के लिए जागृत अवस्था से दूर एक तन्द्रिल-स्वप्निल लोक में उसी तरह पहुँचा देते हैं जैसे कोई मनोविश्लेषक किसी रोगी को सम्मोहित कर उसे किसी अतीन्द्रिय मानसलोक में पहुँचा देता है। -भारतीय साहित्यशास्त्र और काव्यालङ्कार, पृ०६ ।
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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