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________________ तृतीय उल्लासः निराकाङ्क्षत्वप्रतिपत्तये प्राप्तावसरतया च पुनः पुनरुदाह्रियते। वक्त्रादीनां मिथःसंयोगे द्विकादिभेदेन । स्मिन्नेव वैशिष्टथद्वयस्य [सत्वे-सम्भवे वा] किमुदाहरणबाहुल्येनेत्यत आह-निराकाङ्क्षप्रतिपत्तय इति । मिलितेषु कस्य व्यञ्जकत्वमिति सन्देहे यस्य यत्र प्राधान्यं तस्य तत्र व्यञ्जकत्वमन्येषामानुगुण्यमात्रमिति शिष्यव्युत्पत्त्यर्थमित्यर्थः, प्राप्तावसरतया चेति । एकत्र वैशिष्टयत्रयायुदाहरणे क्रमेणोदाहरणज्ञानाभावाच्छिष्यजिज्ञासाक्रमेण तदुदाहरणज्ञानायेत्यर्थः, सर्वेषां प्रायशोऽर्थानामित्यनेनैवार्थव्यञ्जकत्वे दर्शित किमनेनेत्यत उक्तम् 'निराकाङ्क्षेति, किं साहित्येनार्थस्य व्यजकत्व' मित्याकाङ्क्षानि.. वृत्त्यर्थमित्यर्थः । प्राप्तेति, शब्दव्यञ्जकतानिरूपणानन्तरमर्थव्यञ्जकतानिरूपणस्य प्राप्तावसरत्वादिअवतरण संगति:- . "उक्त उदाहरणों में एक में ही दो प्रकार के वैशिष्टय हैं या हो सकते हैं फिर बहुत से उदाहरण को दिये गये ? "इसका प्रथम समाधान देते हुए लिखते हैं 'निराकान...इत्यादि बहुत से वैशिष्ट्यों के एक जगह मिल जाने पर किसकी व्यञ्जकता है जब ऐसा सन्देह उपस्थित होगा, तब 'जहाँ जिसकी प्रधानता है वहाँ, उसकी व्यजकता माननी चाहिए और दूसरों को उसके अनुगुणक मात्र (सहायक मात्र) मानकर गौण मानना चाहिए यह ज्ञान शिष्य को देने के लिए अलग-अलग उदाहरण दिये गये हैं। शिष्य जब पूर्वोक्त उदाहरणों में निर्दिष्ट वैशिष्टय की व्यजकता के अतिरिक्त किसी अन्य वैशिष्ट्य को भी व्यञ्जक होते पाएगा, तो वह गुरु से जिज्ञासा प्रकट करेगा कि गुरुजी, इस श्लोक को जिस वैशिष्ट्य की व्यञ्जकता के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया गया है, उसमें अमुक वैशिष्ट्यमूलक अर्थव्यजकता भी हो सकती थी, वह क्यों नहीं दिखायी गयी, जैसे- "अन्यत्र यूयम्" इस श्लोक को देश वैशिष्ट्यमूलक आर्थीव्यञ्जना का उदाहरण दिया गया है, परन्तु यहाँ वक्तृवैशिष्ट्यमूलक आ व्यञ्जना भी हो सकती है वह क्यों नहीं बतायी गयी तो गुरु बतायेगा कि यहाँ देशवैशिष्ट्य में प्राधान्य विवक्षित है, वक्ता के वैशिष्ट्य के कारण व्यङ्गय निकल सकता है; परन्तु वह देश वैशिष्ट्यमूलक व्यङ्ग्य से न्यून चमत्कारक होगा। इसी लिए इसे वक्तृवैशिष्ट्यमूलक व्यञ्जना का उदाहरण नहीं दिया। इस तरह वाक्यवैशिष्ट्य और वाच्यवैशिष्ट्य में दिये गये व्यजना के उदाहरणों में एक दूसरे के उदाहरण का सन्देह होने से उसे बताया जायगा कि जहाँ वाक्य का प्राधान्य विवक्षित होता है, वहां वाक्य वैशिष्ट्यमूलक आर्थीव्यञ्जना होती है और जहाँ वाच्य की प्रधानता विवक्षित होती है; वहाँ वाच्यवैशिष्ट्य में आर्थीव्यञ्जना मानी जाती है। इस तरह के ज्ञान से न केवल जिज्ञासा शान्त होगी परन्तु उसे एक मार्ग या व्युत्पत्ति मिलेगी जिसके आधार पर वह व्यञ्जना में वैशिष्ट्य विशेष की प्रधानता और अप्रधानता का निर्णय कर सकेगा। ____ अलग-अलग उदाहरण देने का दूसरा कारण बताते हैं 'प्राप्तावसरतया इति'- तात्पर्य यह है कि यदि एक ही उदाहरण में तीन वैशिष्ट्य बताये जाते तो वह उदाहरण कारिका में उल्लिखित लक्ष्यों के नाम-क्रमानुसार नहीं होता। इसलिए क्रमिक उदाहरण की शिष्य की जिज्ञासा के अनुसार उन भेदों के उदाहरण ज्ञान के लिए पृथक पृथक् दिये गये। - किसी और का मत है कि "सर्वेषां प्रायशोऽर्थानाम" इसी ग्रन्थ के द्वारा जब अर्थव्यञ्जकत्व का उल्लेख किया जा चुका है तो फिर इस (सन्दर्भ) के लिखने से क्या लाभ ? इस प्रश्न के समाधान के लिए निराकाङ्क्षत्यादि पङ्क्ति लिखी गयी है। किस के साहित्य से (सहकार से) या किस सहकार से अर्थव्यञ्जक बनता है इस आकाङ्क्षा की निवृत्ति के लिए यह तृतीय उल्लास लिखा गया है। १. द्वितीय उल्लास सूत्र।
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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