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________________ तृतीय उल्लास : १५६ अथवा ननु 'शब्दप्रमाणवेद्योऽर्थो व्यनक्त्यर्थान्तरं यत' इत्यादिनाऽर्थोपस्थितिद्वारंव शब्दस्य सहकारित्वव्यवस्थापनात् काकोरपि ध्वन्यात्मकशब्दत्वादर्थज्ञानजननद्वारा सहकारित्वमुपेयं, तत्र ध्वनित्वेन काकोरवाचकत्वान्न व्यङ्ग्यबोधानुकूलवाच्यान्तरोपस्थापकत्वं, प्रकृतवाक्यार्थज्ञानं च काकुस्वरं विनैव सम्भवतीति न काकुस्तत्र कारणम् उक्तव्यङ्गयानुकूलव्यङ्गयान्तरोपस्थापने च व्यङ्गरूपार्थस्यैव व्यञ्जकत्वं न वाच्यरूपार्थस्येति कथं काकु सहकारेण वाक्यार्थस्यात्र व्यञ्जकत्वमुदाहृतमिति शङ्कते - न चेति, न सिद्ध्यङ्गम् असिद्धयङ्ग सिद्धिर्वाक्यार्थबोधस्तस्याः कारणं न काकुरिति कृत्वा गुणीभूतव्यङ्गयत्वम् अन्यथासिद्धव्यङ्गयकत्वं वाच्यार्थानुपस्थाप्य व्यङ्ग्यकत्वमत्र वाचि अस्मिन् वाक्ये इति न शङ्कनीयमित्यर्थः । समाधत्ते प्रश्नेति काकुस्वरेण प्रश्नोऽत्र व्यज्यते वाक्येन च वाक्यार्थ उपस्थाप्यते, तत उभाभ्यां वाक्यैकवाक्यतावन्महावाक्यार्थबोधः तदुत्तरं प्रकृतव्यङ्ग्योपस्थितिरिति भवति काकुसाहित्येन वाच्यार्थस्य व्यञ्जकत्वमित्यर्थः, मात्रपदेन वाक्यार्थज्ञानाजनकत्वं विश्रान्तिपदेन प्रश्नमभिव्यज्य विरतत्वान्न यह नहीं बताता कि तादृशदर्शन तादृशकोप का जनक है। 'तादृशदर्शन पहले हुआ और वह क्रोध बाद में उत्पन्न हुआ' इस अर्थ में किसी प्रकार की बाधा नहीं है इसलिए बाधाभाव होने के कारण यहाँ योग्यता है । अथवा "शब्दप्रमाणवेद्योऽर्थो व्यनक्त्यर्थान्तरं यतः । अर्थस्य व्यञ्जकत्वे तच्छब्दस्य सहकारिता ।। " अर्थात् शब्दप्रमाण से गम्य अर्थ ही अर्थान्तर को व्यक्त करता है । इसलिए अर्थ के व्यञ्जकत्व में शब्द सहकारी होता है । इस कारिका में अर्थोपस्थिति के द्वारा ही शब्द को सहकारी माना गया है काकु भी ध्वन्यात्मक शब्द ही है, इस तरह अर्थज्ञान के जनन (उत्पत्ति) के द्वारा काकु को भी सहकारी मानना ही चाहिए और वहाँ ध्वनि होने के कारण काकु को वाचक नहीं माना जा सकता। इसलिए उसको ( काकु को) व्यङ्ग्यबोध के अनुकूल (वाच्यान्तर) दूसरे वाच्य अर्थ का उपस्थापक भी नहीं माना जा सकता और प्रकृत ( निर्दिष्ट ) वाक्यार्थ का ज्ञान काकुस्वर के बिना ही सम्भव है इसलिए काकु यहां निर्दिष्ट अर्थ के उपस्थापन में कारण नहीं हो सकता । उक्त व्यङ्ग्य के अनुकूल व्यङ्ग्यान्तर के उपस्थापन में व्यङ्ग्यरूप अर्थ ही व्यञ्जक हो सकता है, वाच्यरूप · अर्थ नहीं। इसलिए इस पद्य को काकु के सहकार से वाक्यार्थ के व्यञ्जक होने के उदाहरण के रूप में कैसे प्रस्तुत किया गया ? यह बताते हुए लिखते हैं "न च" इत्यादि । इस मत में वाच्यसिद्धयङ्गमत्र काकु: "इस वाक्यखण्ड की विवृति इस प्रकार है- "पदच्छेदवाचि असिद्धयङ्गम् । न सिद्धयङ्गम् असिद्धयङ्गम्" सिद्धि अर्थात् वाक्यार्थबोध, उसका अङ्ग अर्थात् कारण । गुणीभूतव्यङ्ग्यत्वम् का अर्थ है अन्यथासिद्धव्यङ्गयत्व अर्थात् वाच्यानुपस्थाप्यव्यङ्गयत्व. । इस तरह के पदच्छेद और विग्रह के अनुसार "न च.... शक्यम्" इस प्रश्न- वाक्य का शब्दानुसारी अर्थ होगा 'यहाँ काकु, सिद्धि अर्थात् वाक्यार्थ- बोध का अंग (कारण) नहीं है अत: 'अत्र वाचि' इस वाक्य में गुणीभूत व्यङ्गयत्व ( वाच्यार्थानुपस्थाप्य व्यङ्गयत्व ) की शंका नहीं करनी चाहिए।' " प्रश्नमात्रेण... विश्रान्तेः” इस वाक्य के द्वारा यहाँ समाधान प्रस्तुत किया गया है। वह इस प्रकार हैकाकु स्वर से यही अभिव्यक्त होता है और वाक्य से वाक्यार्थ की उपस्थिति होती है। बाद में दोनों में एकवाक्यता होती है; तब उसी प्रकार महावाक्यार्थ-बोध होता है जैसे बहुत से वाक्यों में एकवाक्यता होने के पश्चात् महावाक्यार्थबोध होता है। महावाक्यार्थबोध के बाद में निर्दिष्ट व्यङ्गय ( मयि न योग्यः खेदः कुरुषु योग्य : ) की उपस्थिति होती है इस तरह यहाँ काकु के साहित्य ( सहकार - सहायता ) से वाक्यार्थ की व्यञ्जकता होती है अर्थात् काकु के सहकार से यहाँ वाच्यार्थं व्यञ्जक होता है। "प्रश्नमात्रेण " में मात्र पद का प्रयोग किया गया है।
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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