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________________ प्रधान-सम्पादकीय पुरोवचन - ले. मुनि यशोविजय उपक्रम विद्वानों द्वारा अनुमानित रूप से निर्धारित समय के अनुसार ग्यारहवीं शती के उत्तरार्ध में वाग्देवतार जैसे मम्मट नामक गृहस्थ प्राचार्य द्वारा रचित 'काव्यप्रकाश' नामक सुविख्यात ग्रन्थ के दूसरे और तीसरे उल्लास पर सत्रहवीं शती में विद्यमान तार्किकशिरोमणि, षड्दर्शनवेत्ता, अनेक ग्रन्थों के रचयिता परमपूज्य उपाध्याय श्रीमद् यशोविजयजी महाराज द्वारा रचित यह टीका सर्वप्रथम प्रकाशित हो रही है, इससे समग्र साहित्यानुरागी जगत् एक अच्छी सी प्रानन्द की लहरी का अनुभव किये बिना नहीं रह सकेगा। किन्तु मैं तो अत्यन्त आनन्द के साथ गौरव का अनुभव कर रहा है। मेरे लिये प्रानन्द और गौरव के दो कारण हैं, पहला कारण यह है कि एक महापुरुष की संस्कृतभाषा में रचित साहित्यादि की तथा कतिपय दार्शनिक सिद्धान्तों की तर्कबद्ध विवेचना करनेवाली एक महान् कृति के उत्तरदायित्व से मैं मुक्त हो रहा हूं तथा इसी के कारण एक प्रकार की भारहीनता का अनुभव कर रहा हूँ। दूसरा कारण यह है कि न्यायशास्त्र से पूर्ण टीका जिसका कि अनुवाद होना कठिन था, उसका अनुवाद सुशक्य होकर हिन्दी भाषान्तर सहित यह कृति प्रकाशित हो रही है। सामान्य मान्यता ऐसी है कि तार्किक-नैयायिक कठोर स्वभाववाले होते हैं। क्योंकि तर्क युक्तियाँ मथवा पदार्थज्ञान में कोई आनन्द नहीं आता, ये तो मस्तिष्क का दही बनानेवाले हैं। अतः प्रायः साहित्यकार शीघ्र नहीं बनते । क्योंकि साहित्यकार वही बन सकता है जिसके हृदय में मृदुता, कोमलता अथवा सरसता की मात्रा अधिक हो । इतना होते हुए भी 'वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि' इस कालिदासोक्ति का अनुसरण करनेवाले महर्षि अवश्यकता होने पर वज्र से भी अविक कठोर तथा कड़क हो सकते हैं और अवसर आने पर पुष्प से भी अधिक सुकोमल हृदय का अनुभव करवा देते हैं। और ऐसी भी विद्वानों की उक्ति है कि 'श्रेष्ठ विद्वान् काव्य-साहित्य के क्षेत्र को हीन मानते हैं और कहते हैं कि 'शास्त्रज्ञ न बन . सकने वाले लोग कवि' बनते हैं। परन्तु उपाध्यायजी के लिये ये उक्तियां निरर्थक सिद्ध हुई और उन्होंने भारतीय साहित्यनिधि की एक विख्यात कृति पर अपनी लेखिनी चला कर अपनी सर्वाङ्गीण प्रतिभा का दर्शन कराया तथा इसके द्वारा जैन साहित्य और जैन श्रीसंघ को वस्तुतः गौरव प्रदान किया। एक ही व्यक्ति ने ज्ञान की विविध शाखा-प्रशाखाओं पर इतना विपुल और विस्तृत साहित्य का सर्जन किया है कि जिसका मूल्याङ्कन करना बहुत कठिन है। ज्ञान-विज्ञान की अनेक शाखामों को पुष्पित-पल्लवित करने की अदम्य स्फूर्ति रखनेवाले परोपकार-रसिक उपाध्यायजी श्रीमद् यशोविजयजी जैसे बहुश्रुत और बहुमुखी विद्वान् ने काव्य जैसे विषय को भी नहीं छोड़ा। १. इसके लिये एक उक्ति भी प्रसिद्ध है कि-'शास्त्रषु भ्रष्टाः (हीनाः) कवयो भवन्ति' अर्थात् शास्त्र नहीं पढ़ __ सकनेवाले व्यक्ति कवि बनते हैं । किन्तु उपाध्याय जी के लिये यह उक्ति नहीं घटती थी।
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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