SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 308
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ काव्य प्रकाशः व्यङ्गयमुपस्थाप्यते येन वाच्यव्यङ्गययोरेकज्ञानविषयता स्यादपि तु प्रश्नद्वारा, तथा गुरुः किमिति मयि खेदं भजति न कुरुध्विति काकुव्यङ्गय प्रश्नघटितवाक्यार्थे पर्यवसन्ने तेनानौचित्यरूपव्यङ्गयभानमित्युत्तरार्थ इत्याहुः । तदप्यसत् । मयि न योग्य इत्यस्यानौचित्यार्थकत्वे कुरुषु योग्य इत्यस्य कुरुविषयककोपौचित्यार्थकस्य कुरुविषयककोपाभावानौचित्यार्थकतया मूलविरोधात् ।। इतरे तु कुपितोद्धतनायकोक्तवाक्यस्य निश्चितं विपर्ययपर्यवसायित्वं न काकुप्रकाश्यमर्थ विनाऽत्र निर्बहतीति व्यङ्गयस्य वाच्यसिद्धाङ्गत्वरूपगुणीभूततृतीयभेदतेति शङ्कार्थः, न काकुरत्र व्यजिका किन्तु काक्वा प्रश्नमात्रत त्पर्ये गृहीते विपरीतलक्षणया विपर्ययपर्यवसाने प्रकृतवाक्यार्थव्यङ्गयः क्रोधप्रकर्षः स च प्रधान एवेति न नाच्यसिद्धयङ्गतेत्युत्तरार्थ इति वदन्ति, तदपि कुरुषु योग्यः खेदो न मयीति काक्वा प्रकाश्यत इति पूर्वफक्किकाविरोधेनोपेक्षणीयम् ।। _प्रदीपकृतस्तु उक्तेन काकुव्यङ्गयेन बाच्यस्य सिद्धिः शोभनत्वनिष्पत्तिः क्रियते तथा चापराङ्गतया व्यङ्गयगुणीभूतमिति शङ्कते- अति उक्तव्यङ्गयस्य क्रोधप्रकर्षपर्यवसन्नतया वाच्यस्यैव तदङ्गत्वान्न व्यङ्गयस्य पराङ्गतेत्यर्थः, तथापि काक्वाक्षिप्तरूपगुणीभूतव्यङ्गय प्रभेदे किं बाधकमत आह- . "क्यों नहीं", इस तरह के काकु से व्यङ्गय जो प्रश्न है, उससे घटित वापयार्थ सम्पन्न होने पर उस वाक्यार्थ से अनौचित्यरूप व्यङ्गय का भान होता है। सुबुद्धि मिश्र ने यह उतरवाक्य का तात्पर्य · बताया है परन्तु उसका यह कथन गलत है। मुझ पर क्रोध करना योग्य नहीं है, इसका व्यङ्गय यह होगा कि मुझपर क्रोध करना अनुचित है। ऐसी स्थिति में "कूरुष योग्यः खेदः" इसका अर्थ होगा कि कुरुविषयक क्रोध उचित है यदि दूसरे शब्दों में कहें तो व्यङ्ग्य होगा, कुरुविषयक कोपाभाव अनुचित है और ऐसी स्थिति में मूल ग्रन्थ के साथ विरोध आयेगा। . 'इतरे तु' शब्द से टीकाकार निर्दिष्ट ग्रन्थ का तात्पर्य इस प्रकार बताते हैं भीम एक कुपित और उद्धत नायक है, उसके द्वारा उक्त वाक्य का विपर्यय (विपरीतार्थ) में पर्यवसान निश्चित है, परन्तु काकु के द्वारा प्रकाशित अर्थ के बिना पूर्वोक्त पर्यवसान हो नहीं सकता, इसलिए वहां वाच्य सिद्धयङ्गनामक गुणीभूत व्यङ्गय का तीसरा प्रकार मानना चाहिए । यह शङ्का (वाक्य). का तात्पर्य है । उत्तरवाक्य का तात्पर्य उन्होंने इस तरह बताया है कि काकु यहाँ व्यञ्जक नहीं है। किन्तु काकु के द्वारा जब प्रश्नमात्र में तात्पर्यग्रहण हुआ, तब विपरीतलक्षणा के द्वारा वाच्यार्थ से विपरीत अर्थ में वाक्यार्थ का पर्यवसान हुआ । इस तरह 'तथाभूताम' इत्यादि वाक्यार्थ से क्रोधप्रकर्ष व्यङ्गय हुआ, वह व्यङ्गय प्रधान ही है उस व्यङ्गय में वाच्यसिद्धयङ्गता नहीं है। यह मत भी मूलग्रन्थ से विरुद्ध प्रतीत होता है क्योंकि मूल में लिखा हुआ है कि 'कुरुषु योग्यः खेदः न मयि' अर्थात् कौरवों पर क्रोध करना उचित था मुझ पर नहीं, यह यहां काकु से प्रकाशित होता है । इसलिए वतिवाक्य के विरुद्ध होने के कारण पूर्वोक्त कल्पना ठीक नहीं जचती। - प्रदीपकार का कहना है कि 'उक्त काकु व्यङ्गय से वाच्य की सिद्धि अर्थात् शोभनत्व की निष्पत्ति की जा सकती है। इस तरह यहां अपराङ्ग होने के कारण गुणीभूत व्यङ्गय है, यह प्रश्न 'न च अत्र' इत्यादि वाक्य से उठाया गया है । उत्तर जो 'प्रश्नमात्रेण' इत्यादि वाक्य से दिया गया है उसका तात्पर्य है कि, उक्त व्यङ्गय क्रोध के प्रकर्ष में समाप्त होता है इसलिए वह किसी का अङ्ग नहीं बनता, अपितु वाच्य ही उसका अङ्ग बनता है । अतः यहाँ
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy