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________________ १५४ काव्य-प्रकाशः न च वाच्यसिद्धयङ्गमत्र काकुरिति गुणीभूतव्यङ्गयत्वं शङ्कयम् । प्रश्नमात्रेणापि काकोविश्रान्तेः । स्थितिपर्यन्तं काकुव्यापारस्तत्र गुणीभूतव्यङ्गयत्वमिति काक्वा प्रकाश्यत इति केचित् । तन्न । काकुव्यङ्गयत्वेऽप्यर्थव्यञ्जकत्वक्षतेरभावेन शङ्काया अनुत्थानात्, काकुमात्रस्याव्यञ्जकत्वादिति काक्वा प्रकाश्यत इति पूर्वग्रन्थविरोधेनार्थोपस्थितिपर्यन्तं काकोर्व्यापारस्वीकारेऽप्यर्थव्यञ्जकताऽनपायेन चोत्तर. अथवा यहां काकु से यह प्रश्न निकलता है कि 'क्या गुरु (युधिष्ठिर) मुझ पर नाराज हो रहे हैं, कौरवों पर नहीं ?' और दूसरी बात यह प्रतीत होती है कि 'युधिष्ठिर का मुझ पर क्रोध करना उचित नहीं है। उनको मेरे स्थान पर कौरवों पर क्रोध करना चाहिए था' यह दूसरा अर्थ व्यङ्गय अर्थ है। यह व्यङ्गय अर्थ काकु से उपस्थित प्रश्न की सिद्धि का अङ्ग प्रतीत होता है, इसलिए यहाँ वाच्यसिद्धि के अङ्ग होने के कारण वाच्यसिद्धयङ्ग नामक गुणीभूत व्यङ्गय मानना चाहिए, यह प्रश्न वृत्ति के "न च वाच्यसिद्धधङ्गमत्र काकुरिति गुणीभूतव्यङ्गय शक्यम्" इस वाक्य से प्रकट, . हुआ है । उत्तर इस वाक्य से दिया गया है "प्रश्नमात्रेणापि काकोविश्रान्तेः" । तात्पर्य यह है कि यहाँ पूर्वनिर्दिष्ट व्यङ्गय अर्थ को काकू का अङ्ग मानने की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि यहाँ काकु की विश्रान्ति प्रश्नमात्र प्रस्तुत कर देने से हो सकती है । उससे व्यङ्गयार्थ आक्षिप्त नहीं होता; इसलिए यहाँ 'काक्वाक्षिप्त' नहीं है । प्रश्नमात्र करके वाच्य कृतार्थ हो गया है। अतः उसकी सिद्धि के लिए किसी व्यङ्गयविशेष की यहाँ आवश्यकता नहीं है। इसलिए यहाँ वाच्यसिद्धयङ्ग भी नहीं माना जा सकता, अतः यहाँ गुणीभूत व्यङ्गय होने की शङ्का नहीं करनी चाहिए। यही बात अपने ढंग से बताते हुए टीकाकार लिखते हैं "न चेति वाच्यम्" का अर्थ है "वक्तव्यम्"। यह प्रश्नवाक्य का शब्दार्थ है। 'यहाँ वक्तव्य जो व्यङ्गय है उसकी सिद्धि का अङ्ग अर्थात् प्रतीति का कारण काकु है इसलिए काक्वाक्षिप्त नामक गुणीभूतव्यङ्गय होने की शङ्का नहीं करनी चाहिए। प्रश्नवाक्य की नयी व्याख्या प्रस्तुत करके अब उत्तरवाक्य की व्याख्या प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं । पहले किसी अन्य का मत प्रस्तुत करते है :-"कोई कहते हैं कि इस श्लोक के पहले एक प्रश्नवाक्य आया है। सहदेव कहता है कि 'कदाचित् खिद्यते गुरुः' शायद आप पर (भीम पर) युधिष्ठिर नाराज हो जाय ? इस पर भीम कहता है कि 'सहदेव, क्या युधिष्ठिर नाराज होना भी जानते हैं ?' इस प्रकार प्रश्न के प्रकरण में श्लोक के आने के कारण "क्यों युधिष्ठिर मुझ पर ही नाराजगी लाते हैं कौरवों पर क्रोध क्यों नहीं करते" इस प्रश्न को उपस्थित कराकर काकु समाप्त हो जायगा। इसलिए श्लोक के वाक्यार्थ से ही व्यङ्गयार्थ की उपस्थिति होगी। इस तरह काकु यहाँ व्यङ्गय अर्थ की उपस्थिति की जननी नहीं है। काक्वाक्षिप्त गुणीभूत व्यङ्गय तो वहाँ होता है, जहां व्यङ्गय अर्थ की उपस्थिति पर्यन्त काकु का व्यापार रहता है यह बात 'काक्वा प्रकाश्यते' शब्द से सूचित होती है यह मत ठीक नहीं है क्योंकि यह यदि काक्वाक्षिप्त गुणीभूत व्यङ्गय का उदाहरण हो तो भी यहाँ अर्थव्यञ्जकता है ही। यहाँ केवल अर्थव्यञ्जकता का उदाहरण देना अभीष्ट है । काकु से व्यङ्गय अर्थ गुणीभूत व्यङ्गय हो, या प्रधान; इससे प्रकृत उदाहरण में कोई अन्तर नहीं पड़ता है इसलिए इस प्रकार का प्रश्न उठ ही नहीं सकता था। काकुमात्र में यहाँ व्यञ्जकता नहीं है (इसलिए यहाँ काक्वाक्षिप्त व्यङ्गय नहीं है) यह कथन 'काक्वा प्रकाश्यते' इस पूर्व ग्रन्थ से विरुद्ध होगा। 'काक्वाक्षिप्त वहाँ होता है जहाँ व्यङ्गय अर्थ की उपस्थिति पर्यन्त काकु का व्यापार रहता है' ऐसा स्वीकार करने पर भी अर्थव्यञ्जकता का उदाहरण देना अभीष्ट है इसलिए ऐसा प्रश्न उठाना चाहिए जिससे इसकी अर्थव्यञ्जकता में कोई दोष प्रकट हो और उत्तर भी ऐसा होना चाहिए जो इसकी अर्थव्यञ्जकता को प्रमाणित कर दे। इस तरह "केचित" के द्वारा प्रकट किया हुआ मत उपयुक्त नहीं है।
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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