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________________ तृतीय उल्लासः अत्र चौर्यरतगोपनं व्यज्यते । प्रोण्णिदं दोव्वल्लं चिंता अलसत्तणं सणीससिघ्रं । ___ जलकुम्भं जलपूर्णकुम्भं तेन दुर्वहत्वं, गृहीत्वेत्यनेन मयेवोत्थाप्य गृहीतो न त्वन्यया साहाय्यमाचरितमित्यायासातिशयो व्यज्यते, सहो बलं, अत्रेति स्वैरिणीप्रतिपादितत्वेन प्रतिसन्धीयमानत्वाद् वाच्यार्थ एव रतकार्य श्रमादिकं जलपूर्णकुम्भानयनादिजन्यत्वेन प्रतिपादयतीति व्यज्यते, अनुमानस्य वक्तवलक्षण्यज्ञानानपेक्षतया वाच्यार्थमात्रस्य साध्वीप्रतिपादितस्य गोपनव्यभिचारित्वादिति भावः, एवमग्रेऽप्यूह्यम् । अत्र जलपदं जलपूर्णे लाक्षणिकम्, गृहीत्वेति पदं स्वयमेवोत्थाप्य गृहीतत्वरूपान्तरसङ्क्रमितवाच्यमिति, लक्ष्यार्थस्यापि व्यञ्जकत्वं, तथा तद्र्व्यव्यङ्गययोदुर्वहत्वायासातिशययोरपि व्यञ्जकत्वमाकलनीयम् । प्रोगिह मिति औन्निद्रयं दौर्बल्यं चिन्ताऽलसत्वं सनिःश्वसितम् । सखी, मैं बड़ा भारी पानी से भरा हुआ घड़ा लेकर बहुत वेग से आ रही हूँ। परिश्रम के कारण पसीना और निःश्वास से परेशान हो गयी है। इसलिए थोड़ी देर यहाँ बैठकर विश्राम करूंगी। व्यङ्गय "जलकुम्भम्" का अर्थ है जल से भरा हुआ घड़ा। इससे उसके भारी होने की तथा उठाने में कठिनाई की प्रतीति होती है। 'गृहीत्वा' पद से सूचित होता है कि 'मैंने ही इसे उठाया है और मैं ही यहाँ तक लायी है किसी और ने इस काम में किसी प्रकार की सहायता नहीं पहुंचायी है।' इस तरह इन पदों से अतिशय आयास व्यङ्गय होता है। (सहो बलम) (यहाँ कुछ अस्पष्ट है) "अत्र चौर्यरतगोपनं व्यज्यते" इसमें वक्ता के वैशिष्टय से चौर्यरत छिपाने की प्रतीति होती है। . इस पद्य की वक्त्री स्वैरिणी नायिका है इस पूर्वज्ञान के कारण श्लोक का जलपूर्ण घट के आनयनादि रूप में निर्दिष्ट वाच्यार्थ ही रतकार्य श्रमादि को अभिव्यक्त करता है अनुमान के द्वारा नहीं जाना जा सकता। क्योंकि अनुमान वक्ता के विलक्षण होने से बदलता नहीं है। 'पर्वतो बुद्धिमान्' का वक्ता कोई भी हो, अनुमान तो होगा ही। परन्त "अतिप्रथलम्" इस पद्य की वक्ता यदि साध्वी होती तो यहाँ चौर्यरतगोपनरूप व्यङ्गच की प्रतीति नहीं होती। इसलिए “यत्र यत्रवंविधोऽर्थः तत्र-तत्र चौर्यरतगोपनम्" इस साहचर्यनियम में व्यभिचार आने के कारण व्याप्तिग्रह के अभाव में अनुमान नहीं हो सकता। इसी तात्पर्यविशेष को सूचित करने के लिए यहाँ 'व्यज्यते' शब्द का प्रयोग किया गया है। 'व्यज्यते' शब्द ने जोर देकर सूचित किया है कि "व्यज्यते न तु अनुमीयते"। यहां "जलम्भम्" में जलपद लक्षणा के द्वारा जलपूर्ण अर्थ को प्रकट करता है । "गृहीत्वा" पद समानकर्ता होने पर विधीयमान क्त्वा प्रत्यय से युक्त होने के कारण स्वयं ही उठाकर लाने का अर्थ प्रकट करता है. इसलिए यहाँ 'ग्रहीत्वा' पद स्वयं ही उठाकर लाने जैसे अर्थान्तर में संक्रमित हो गया है अत: यहाँ अर्थान्तर वाच्य है। इस प्रकार पूर्वोक्त पद्य में न केवल वाच्यार्थ की व्यञ्जकता दिखायी गयी है किन्तु लक्ष्यार्थ की व्यञ्जकता भी लक्षित होती है। इसी तरह यहाँ पूर्वोक्त दोनों लक्ष्यार्थों के व्यङ्गय-दुर्वहत्व (अत्यन्त भारीपन) और उसे उठाकर लाने में अत्यन्त परिश्रमरूप अर्थ भी व्यञ्जक हैं। इसलिए इस पद्य में व्यङ्गयार्थ की व्यञ्जकता भी दिखायी गई है। अतः यहाँ वाच्य, लक्ष्य और व्यङ्गय तीनों प्रकार के अर्थों की व्यञ्जकता जाननी चाहिए। २. बोद्धव्य वैशिष्टय में व्यञ्जना का उदाहरण-ओण्णि इत्यादि । खेद है कि हे सखि, मुझ मन्दभागिनी
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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