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________________ १४६ काव्य-प्रकाशः व्यञ्जकत्वेन तत्रातिव्याप्तेरभावादित्यत आह-यदिति, तथा चार्थस्याव्यञ्जकत्वेन तत्रातिव्याप्तिवारणमेव शब्दपदमिति भाव इति व्याचक्ष्महे । नृसिंहमनीषायाः। । इति काव्यप्रकाशे "शब्दार्थ-स्वरूप-निर्णयो" नाम द्वितीयः समुल्लासः।। वस्तुतः “तयुक्तो व्यञ्जकः शब्दः" इसके द्वारा व्यञ्जनयुक्त शब्दत्व को ही व्यञ्जक शब्द का लक्षण कहा गया है ; वहाँ 'शब्द' पद का निवेश व्यर्थ है क्योंकि अर्थ भी व्यञ्जक होता है इसलिए 'शब्द' पद का लक्षण में निवेश नहीं करने पर भी अतिव्याप्ति नहीं दी जा सकती। इसीलिए कहते हैं "यत् सोऽर्थान्तरयुक तथा"। तात्पर्य यह है कि अर्थ के अव्यजक होने के कारण वहाँ सम्भावित अतिव्याप्ति के निवारण के लिए 'शब्द' पद का निवेश किया गया है यह 'नसिंहमनीषा' का तात्पर्य रहा होगा ऐसा हमें लगता है। सू० ३३ और ३४ का अर्थ इस प्रकार है कि 'उस व्यञ्जनाव्यापार से युक्त शब्द व्यञ्जक कहलाता है । .. वह व्यजक शब्द दूसरे अर्थ के योग से (अर्थात् अपने मुख्यार्थ को बोधन करने के बाद उस प्रकार का अर्थात् दूसरे का व्यञ्जक) होता है, इसलिए उसके साथ सहकारी रूप से अर्थ भी व्यञ्जक माना गया है। १. अत्र 'नृसिंहकविकृता नृसिंहमनीषानाम्नी काव्यप्रकाशटीका' इत्यादि खण्डितः पाठः ।
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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