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________________ द्वितीय उल्लासः १४३ [सू० ३३] तद्युक्तो व्यङजकः शब्दः - तद्युक्तो व्यज्जनयुक्तः । पि तथाऽस्त्विति चेद्, न, शक्त्या घटपदात् पटानुपस्थितौ शक्त्यभावस्येव व्यञ्जनयाऽप्यनभिधेयानुपस्थिती व्यञ्जनाविरहस्यैव तन्त्रत्वाद् राजगजयोरुपमानोपमेयभावस्य तया भानाच्चेति न किञ्चिदेतत् । ___ व्यञ्जनां निरूप्य व्यञ्जकलक्षणमाह-तद्युक्त इति, ननु व्यापृतिरञ्जनमित्यत्राञ्जनपदे प्रस्तुते तद्युक्त इत्यत्र तत्पदेन तस्यैव परामर्शसम्भवे तयुक्तोऽप्यञ्जक इति स्याद् न तु व्यञ्जक इत्यतो व्याचष्टे व्यञ्जनयुक्त इति, तथा च तत्पदस्यार्थपरामर्शकत्वं न तु पदपरामर्शकत्वमपीति नोक्तदोष इति भावः । ननु प्रथमार्थप्रतीत्या व्यवहितत्वाद् द्वितीयार्थप्रतीतौ कथं शब्दः करणमत आह-यदिति । . उत्तर स्पष्ट है, जैसे शक्ति के अभाव के कारण घट पद से पट अर्थ की प्रतीति शक्ति (अभिधा) से नहीं होती; उसी तरह व्यञ्जना के अभाव के कारण यहाँ अनभिधेय अर्थ की उपस्थिति व्यञ्जना से नहीं हो पाती है। यही परम्परासम्मत सिद्धान्त है। राजा और गज में यहाँ उपमानोपमेयभाव का भी भान व्यञ्जना से होता है। न केवल अप्राकरणिक अर्थ यहाँ व्यङ्गय है किन्तु प्राकरणिक और अप्राकरणिक अर्थमूलक उपमा अलंकार भी यहाँ व्यङ्गय है । दोनों अर्थों में अभिधेयतामूलक ही साम्य विवक्षित है। यही कारण है कि यहां अभिधेय अप्राकरणिक अर्थ ही व्यङ्गय माना जाता है । 'ऐरे गैरे नत्थू खैरे' व्यङ्ग्य नहीं माना जाता । भला, असम्बद्ध अर्थ यदि व्यङ्गय माना जाता तो उस अर्थ और अभिधेय प्राकरणिक अर्थ के बीच कौनसा सम्बन्ध स्थापित करके उनमें उपमानोपमेयभाव की कल्पना की जा सकती? __व्यञ्जना का निरूपण करके अब व्यञक का लक्षण बताते हैं-"तचुक्तो व्यञ्जकः शब्दः" उस ज्यञ्जना व्यापार से युक्त शब्द व्यञ्जक कहलाता है। वृत्ति में "तयुक्तः" की व्याख्या "व्यञकयुक्तः" यह की गयी है उसकी आवश्यकता बताते हुए लिखते हैं "व्याप्रतिरञ्जनम्" इस कारिका में अञ्जन शब्द आया है। वही प्रस्तुत है। इसलिए "तयुक्तः" के तत् सर्वानाम से अञ्जन का ही परामर्श होना चाहिए । अतः "तयुक्तः" का अर्थ 'अञ्जनयुक्तः' या 'अञ्जनः' होना . चाहिए 'व्यञ्जक' नहीं इस प्रश्न का समाधान देते हुए वृत्ति में लिखा गया है कि यहाँ "तद्युक्तः" का अर्थ "व्यञ्जकः" या व्यञ्जनयुक्तः या व्यञ्जनायुक्तः है। इस तरह यहाँ तत्पद को अर्थ का परामर्शक मानना चाहिए पद का परामर्शक नहीं। इसलिए तत् पद से अञ्जन पदार्थ का परामर्श होने के कारण "तयुक्तः" की व्याख्या 'व्यञ्जनयुक्तः" के रूप में की जा सकती है। इसलिए उक्त दोष नहीं हुआ। ___ शब्द से पहले अभिधेयार्थ की प्रतीति होती है और बाद में द्वितीयार्थ (व्यङ्गयार्थ) की उपस्थिति होती है यह सिद्ध होता है। इस सिद्धान्त में शब्द को दोनों अर्थों के प्रति करण माना गया है परन्तु द्वितीयार्थ की प्रतीति में शब्द को करण कैसे माना जाय; क्योंकि द्वितीयार्थप्रतीति में प्रथमप्रतीति का व्यवधान है। करण उसे माना जाता है जिसके व्यापार से अव्यवहित उत्तरकाल में क्रिया की निष्पत्ति हो "यदव्यापारव्यवधानेन क्रियानिष्पत्तिः तत् करणम्" इति । ___ शब्द के प्रथम व्यापार से उत्पन्न द्वितीय व्यापार से व्यङ्गय की प्रतीति में शब्द करण नहीं माना जा सकता कयोंकि शब्द और द्वितीयमापार के बीच प्रथमव्यापार का व्यवधान है। इसी प्रश्न का उत्तर देते हुए
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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