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________________ द्वित्तीय उल्लासः साहचर्य विरोधिता । "संयोगो विप्रयोगश्च अर्थः प्रकरणं लिङ्ग शब्दस्यान्यस्य संन्निधिः ॥ सामर्थ्य मौचिती देशः कालो व्यक्तिः स्वरादयः । शब्दार्थस्यानवच्छेदे विशेषस्मृतिहेतवः ॥ ' १३३ इत्युक्त दिशा जन्यशाब्दबोधत्वादेः प्रतिबध्यतावच्छेदकत्वात् । एतेन नानार्थोपस्थितेरन्यतर तात्पर्यग्राहकत्वमेतेषां न त्वपरार्थग्रहप्रतिबन्धकत्वमननुगमादित्यपास्तम् । आद्यपदं व्याख्यातुमाह-संयोग इति, संयोगो गुणविशेषः, विप्रयोगः संयोगध्वंसो विभागो वा, साहचर्यम् एककालदेशावस्थायित्वम् एकस्मिन् कार्ये परस्परसापेक्षत्वं वा, 'विरोध' वध्यघातकभावः सहानवस्थानं च, अर्थः प्रयोजनं प्रकरणं वक्तृश्रोतृबुद्धिस्थता, लिङ्ग संयोगातिरिक्तसम्बन्धेन परपक्षत्र्यावर्त्तको धर्मः, न त्वसाधारणः, सशङ्खचक्र इत्यत्रातिव्याप्तेः, “शब्दस्यान्यस्य सन्निधिः" समासाद्यनधीनस मानार्थताकशब्दान्तरसमभिव्याहारः समासाद्यनधीनत्व विशेषणात् सशङ्खचक्र इत्यत्रातिव्याप्तिः, समानार्थताकेति विशेषणात् 'स्थाणुं भज भवच्छिदे' इत्यत्रातिव्याप्तिश्च निरस्ता । प्रदीपकृतस्तु समानार्थक शब्दान्तरसामानाधिकरण्यं तदर्थः, हरी शङ्खचक्रे इति च संयोगोदाहरण मित्याहुः, 'सामर्थ्यं' कारणता, . औचिती योग्यता, , देशकालौ प्रसिद्धौ व्यक्तिलिङ्ग पुंस्त्वादि, स्वर उदात्तादिः, अनवच्छेदे बाहुल्ये, विशेषस्मृतिहेतवः अविवक्षितार्थान्वयानुभवप्रतिबन्धेन विवक्षितार्थान्वयानुभवप्रयोजका इत्यर्थः । पर ये प्रकरणादि उनमें से एक अर्थ में तात्पर्यग्रहण कराते हैं, अन्य अर्थ के ग्रहण में ये प्रतिबन्धक नहीं बनते; क्योंकि ये स्वयं अननुगत हैं । आदिम (प्रथम) पद की व्याख्या करते हुए लिखते हैं-संयोग इति । 'संयोग' 'गुणविशेष' को कहते हैं । विप्रयोग का अर्थ है संयोगध्वंस या विभाग । एककाल या एकदेश में रहना 'साहचर्य' कहलाता है अथवा एककार्य में परस्परसापेक्ष होना ही साहचर्य है । विरोध वध्य घातकभाव को कहते हैं । अर्थात् वह मनोभाव विरोध है जो एक दूसरे को परस्पर मारने या नुकसान पहुँचाने की प्रेरणा देता है । साथ-साथ नहीं रह सकना भी विरोध कहलाता है । 'अर्थ' का तात्पर्य है 'प्रयोजन' । 'प्रकरण' कहते हैं सन्दर्भ को । यह वक्ता और श्रोता की बुद्धि में रहता है । लिङ्ग वह धर्म है जो संयोग-सम्बन्ध से अतिरिक्त सम्बधों से परपक्ष की व्यावृत्ति करने में समर्थ हो । असाधारण हेतु को यहाँ लिङ्ग नहीं माना गया है। वैसा मानने पर "सशंखचको घरः " यहाँ अतिव्याप्ति दोष हो जाएगा । समासादि के विना समानार्थक (अन्वितार्थक ) शब्दान्तर के समभिव्याहार (सहोक्ति) को सन्धि कहते हैं। 'समासाद्यधीन' विशेषण के कारण 'सशंखचक्रो हरिः' में और 'समानार्थकता' इस विशेषणके कारण "स्थाणु' भज भवच्छिदे" यहाँ अतिव्याप्ति नहीं हुई । प्रदीप कार ने सन्निधि का लक्षण करते हुए लिखा है कि “समानार्थक शब्दान्तरसामानाधिकरण्यम्' समानार्थवाले अन्य शब्दों की समानाधिकरणता ही सन्नधि है । इस लक्षण में सम्भावित अतिव्याप्ति के निवारण के लिए संयोग का उदाहरण 'हरी शङ्खचक्र' यह दिया है । 'सामर्थ्य' का अर्थ 'कारणता' है । औचिती' योग्यता को कहते हैं। देश काल का अर्थ प्रसिद्ध हो है । व्यक्ति का अर्थ 'लिङ्ग' स्त्रीलिङ्ग, पुंल्लिङ्ग आदि है । स्वर का तात्पर्यं उदात्तादि है । अनवच्छेदे का अर्थ है बाहुल्य । "विशेषस्मृतिहेतव:" अर्थात् ये प्रकरणादि अविवक्षित अर्थ के साथ अन्वय के अनुभव में प्रतिबन्धक बनकर विवक्षित अर्थ के अन्वयानुभव के प्रयोजक (सम्पादक) होते हैं।
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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