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________________ द्वितीय उल्लासः १२३ प्रतीत्यन्तरार्थ इत्यर्थ इति । अत्र ब्रूमः - 'शक्यसम्बन्धग्रहे शक्तिजन्यपदार्थस्मरणे वा यः प्रकारतया भासते स एव लक्षणाजन्यबोधे प्रकारतया भासत' इति नियमः, अन्यथाऽतिप्रङ्गात् तादृशश्च प्रकारस्तीरत्वं गङ्गात्वं वा तल्लक्षणाजन्यबोधे प्रकारोऽस्तु शैत्यपावनत्वं तु न तथेति न प्रकार इति तात्पर्यम् । अक्षरार्थस्तु ज्ञानस्य शक्यसम्बन्धज्ञानरूपस्य शक्तिजन्यपदार्थस्मरणरूपस्य वा विषयोऽन्यस्तीरत्वगङ्गात्वरूपः, फलं लक्षणाजन्यं ज्ञानमन्यदन्यप्रकारकं त्वयोदाहृतं हि यत इति । ननु 'कारणीभूते यः प्रकारतया भासते व कार्येऽपीति' नियमो ज्ञाततायां व्यभिचारी तस्या निष्प्रकारकत्वात्, कारणीभूते यः प्रकारतया भासते स कार्थीभूते तदन्यो नेति नियमोऽपि तथा', कारणीभूतचाक्षुषज्ञान-प्रकारनीलत्वान्यस्य हेयत्वादेः कार्यभूतज्ञाने प्रकारत्वादित्यत आह- प्रत्यक्षादेरिति । तथा च प्रत्यक्षादावयं व्यभिचारस्त्वयोपन्यस्तो न च । है" इसका तात्पर्य यह लेना चाहिए कि “गङ्गायां घोषः" में गङ्गायास्तटे घोषः यहाँ की अपेक्षा भिन्न प्रकारक प्रतिपत्ति के लिए अवाचक शब्द का प्रयोग होता है । इसका तात्पर्य यह कथमपि नहीं समझना चाहिए कि गङ्गायास्तटे घोषः यहाँ नहीं प्रतीत होनेवाले शैत्यादि अर्थ की प्रतीति 'गङ्गायां घोष:' में लक्ष्यप्रतीति के बाद होती है । यदि अनुमान के पूर्वोक्त स्वरूप नहीं हो सकते हैं तो उसका स्वरूप क्या हो सकता है इस प्रश्न के सम्बन्ध में हमारा कथन इस प्रकार रहेगा : शक्य (अर्थ) के सम्बन्ध-ज्ञान में या शक्तिजन्य पदार्थ के स्मरण में जो प्रकार (विशेषण) बनकर भासित होता है वही लक्षणाजन्य बोध में प्रकार बनकर भासित होता है, यह नियम है, यदि ऐसा न मानें तो अतिव्याप्ति दोष हो जायगा, उस तरह का प्रकार (विशेषण) तीरत्व को मानें या गङ्गात्व को मानें, वही तीरत्व या गङ्गात्वलक्षणाजन्य बोध में प्रकार हो सकता है शैत्य और पावनत्व, तो वैसा नहीं है अर्थात् शक्यसम्बन्धग्रह में या शक्तिजन्य पदार्थस्मरण में शैत्य और पावनत्व प्रकारतया भासित नहीं होता इसलिए वह लक्षणाजन्य बोध में भी भासित नहीं होगा । 'अतः उसकी प्रतीति के लिए व्यञ्जनाव्यापार की आवश्यकता है । "ज्ञानस्य विषयो ह्यन्यः फलमन्यदुदाहृतम् " इस कारिका का अक्षरार्थं इस प्रकार मानना चाहिए - ज्ञानस्य अर्थात् शक्यसम्बन्ध ज्ञान का या शक्तिजन्यपदार्थस्मरणरूप ज्ञान का विषय अन्य है अर्थात् तीरत्व या गङ्गात्वरूप विषय अन्य है और फल याने लक्षणाजन्यज्ञान कुछ और है अर्थात् लक्षणाजन्यज्ञान अन्यप्रकारक है " त्वया उदाहृतम्” तूने यह दिखाया है इसे प्रकट करने के लिए 'हि' शब्द का प्रयोग किया है। कारण में जो विशेषण बनकर भासित हो, वही कार्य में विशेषण बनकर भासित हो, यह नियम ज्ञातता में व्यभिचारी है, खरा नहीं उतरता है क्योंकि ज्ञातता का कारण प्रत्यक्षज्ञान में घटत्वप्रकार बनकर भासित होता है और ज्ञातता में विशेषणरूप में कुछ भी भाषित नहीं होता क्योंकि ज्ञातता निष्प्रकारक मानी जाती है । इस तरह कारणीभूत वस्तु में जो प्रकारतया भासित हो, कार्यभूत तत्व में उसके अतिरिक्त या उससे अन्य कोई पदार्थं विशेषण कर भासित नहीं हो सकता, यह नियम भी व्यभिचारी है, क्योंकि प्रत्यक्ष स्थल में ज्ञातता के कारणीभूत चाक्षुषज्ञान में प्रकार (विशेषण) बनकर भासित होनेवाले नीलत्व से भिन्न हेयत्व और उपादेयत्व आदि कार्यभूत ज्ञान में प्रकार बनकर भासित होता है इन्हीं तात्पयों को ध्यान में रखकर वृत्ति में लिखते हैं- 'प्रत्यक्षादे : नीलत्वादि:' इत्यादि । इस तरह इसका तात्पर्य हुआ कि प्रत्यक्षादि में जो व्यभिचार ( विषय और फल के एक साथ होने का व्यभिचार ) आपने १. टि०...... व्यभिचारि ।
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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