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________________ काव्य-प्रकाशः कुत इत्याह [सू० २६] ज्ञानस्य विषयो ह्यन्यः फलमन्यदुदाहृतम् । प्रत्यक्षादेर्नीलादिविषयः फलं तु प्रकटत। संवित्तिर्वा । लक्षणाया असम्भवाद् व्यञ्जना स्वीकार्येति तु न, तोर ] रूप-विशेष्य-सम्बन्धिग्रहस्य सम्बन्धि ? अतः [विषयकत्वेन] एकयैव लक्षणया विशेष्यतया तीरस्यावच्छेदकतया शैत्यादेस्तदुभयसंसर्गतया वैशिष्टयस्यो पस्थितिरुपेयेति शङ्कार्थमामनन्ति । ज्ञानस्येति । प्रकृते व्यापारस्य लक्षणारूपस्य ज्ञायतेऽनेनेति व्युत्पत्तेः। यदि च भावव्युत्पन्नं तदा ज्ञानस्य लक्षणाजन्यस्य, प्राचीनमते लक्षणात्मकस्त [दस्य] स्तीरादिविषयः फलं पावनत्वादि अन्यदित्यर्थः । तत्र दृष्टान्तमाह-प्रत्यक्षादेहीति । प्रत्यक्षमिन्द्रियपरं नैयायिकादिमते, तज्जन्यज्ञानपरं' भट्टमते, प्रकटतेति भट्टमते संवित्तिः चाक्षुषादिज्ञान[ ज्ञान ]मिति ने यायिकादिमते, सुबुद्धिमि सकती इसलिए व्यञ्जना स्वीकार करनी चाहिए' इस शङ्का का उत्तर प्रश्नकर्ता इस प्रकार देता है कि 'एक ही लक्षणा विशेष्यरूप में अनुभूत तीर का और तीर के अवच्छेदक रूप में शत्यादि का और पूर्वनिर्दिष्ट दोनों (विशेष्यता और अवच्छेदकता) सम्बन्ध से विशिष्ट का (शोतत्वविशिष्ट तीर का) बोध करा देगी. इस तरह लक्षणा से काम चलेगा अतः व्यञ्जना मानना व्यर्थ है।' विशिष्ट में लक्षणा माननेवालों के मत का खण्डन करते हुए लिखते हैं-(सू० २६) "ज्ञानस्य विषयो ह्यन्यः फलमन्य दुदाहृतम्" ज्ञान का विषय (नीलो घट: में नीलघटादि) अलग है और ज्ञान का फल (मीमांसक के मत में ज्ञातता या प्रकटता और नैयायिकों के मत में अनुव्यवसाय या संवित्ति) अलग कहे गये हैं। __ प्रकृते- इस प्रकरण में ज्ञान का अर्थ है लक्षणारूप व्यापार । 'ज्ञायते अनेन इति ज्ञानम्' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिससे जाना जाय उसे ज्ञान कह सकते हैं। इस तरह व्यापार (अभिधादि) से अर्थ जाना जाता है। इस लिए अभिधादि-व्यापार को ज्ञान कह सकते हैं। प्रकरण लक्षणा का चल रहा है इसलिए यहाँ ज्ञान का अर्थ लक्षणाव्यापार लिया जाता है। यदि ज्ञान पद की सिद्धि भाववाच्य में ल्युट् प्रत्यय करके करें तो उसका अर्थ होगा "ज्ञप्तिः बुद्धिः ज्ञानम्" बोध । इस पक्ष में यहाँ 'ज्ञानस्य' का अर्थ होगा "लक्षणाजन्य बोध" लक्षणा से होने वाला बोध । प्राचीन मत (पूर्व मत के अनुसार) कारिका का अर्थ होगा कि लक्षणात्मक ज्ञान का विषय तीरादि है। . क्योंकि तीर में लक्षणा की जाती है और फल है पावनत्वादि । पावनत्वादि फल तीरादि विषय से भिन्न है ही। इस बात की पुष्टि के लिए वृत्ति में दृष्टान्त प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं--प्रत्यक्षादेहि । नैयायिकादि के मत में 'प्रत्यक्ष पद 'इन्द्रिय का वाचक है। भद्र (मीमांसक) के मत में 'प्रत्यक्ष' पद इन्द्रिय-जन्य ज्ञानपरक है अर्थात् इन्द्रिय से उत्पन्न ज्ञान का बोधक है । भट्ट के मत में ज्ञान का फल प्रकटता या ज्ञातता है और नैयायिकादि के मत में ज्ञान का फल है संवित्ति अर्थात् रूपादि का ज्ञान । सुबुद्धि मिश्र का कहना है कि 'नयायिकादि और भट्ट (मीमांसक) दोनों ही मतों में प्रत्यक्ष पद इन्द्रिय टि.......१. व्यवसायाख्याम् ।
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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