SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 259
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीय उल्लासः १०७ कुत इत्याह - [सू० २३] यस्य प्रतीतिमाधातु लक्षणा समुपास्यते ॥ १४ ॥ फले शब्दकगम्येऽत्र व्यञ्जनान्नापरा क्रिया। प्रयोजनप्रतिपिपादयिषया यत्र लक्षणया शब्दप्रयोगस्तत्र नान्यतस्तत्प्रतीतिरपि तु तस्मादेव शब्दात् । न चात्र व्यञ्जनादृतेऽन्यो व्यापारः । लाक्षणिकशब्दनिष्ठ इत्यर्थः। 'कुत' इति प्रतिज्ञामात्रेणार्थासिद्धेरिति भावः । 'इत्याह', इत्यत आहेत्यर्थः। 'यस्ये'त्यनेनापत्तिप्रमाणदर्शनं यस्य शैत्यपावनत्वादिरूपप्रयोजनस्य प्रतीतिमनुभवरूपाम् । प्राधातुमुत्पादयितुम् । अत्र तुमुनेच्छोच्यते तेन यत् प्रतिपिपादयिषयेत्यर्थः । अत एव व्याचष्टे . प्रयोजनप्रतिपिपादयिषयेति। अयं भावः-नहि 'गङ्गातीरे घोष' इति वाचकशब्दप्रयोगः कर्तुमेव न शक्यते वक्ता । अथवैप्रयोजन को प्रतीत करानेवाला व्यापार व्यञ्जना है। क्योंकि प्रतिज्ञामात्र से अर्थ की सिद्धि नहीं होती है । अर्थात् शब्द से उसी अर्थ की प्रतीति होती है; जिसकी उपस्थिति किसी न किसी वृत्ति के द्वारा होती है। 'वृत्ति' में "कुत इत्याह" आया है वहाँ "कुत इत्यत आह" समझना चाहिए अर्थात् व्यञ्जनाव्यापार से उस प्रयोजन की प्रतीति क्यों होती है ? इसीलिए कहते हैं (सू० २३) “यस्य प्रतीतिमाधातुम्" इति। . प्रयोजन की वाच्यता का निराकरण ___ व्यञ्जना व्यापार ही क्यों होता है, यह कहते हैं "(सू. २३)-जिस (प्रयोजन विशेष की) प्रतीति कराने के लिए (लक्षणा अर्थात्) लाक्षणिक शब्द का आश्रय लिया जाता है (अनुमान आदि से नहीं अपितु) केवल शब्द से गम्य उस फल (प्रयोजन) के विषय में व्यञ्जना के अतिरिक्त (शब्द का) और कोई व्यापार नहीं हो .. सकता है ॥१४ १२॥ अर्थात जिस प्रयोजन की प्रतीति की इच्छा से लाक्षणिक शब्द का आश्रय लिया जाता है या लक्षणावृत्ति का आश्रय लिया जाता है वह प्रयोजन (फल) केवल शब्द से ही गम्य है (अनुमान आदि से नहीं) इसलिए उस प्रयोजन के विषय में व्यञ्जना के अतिरिक्त (शब्द का) कोई अन्य व्यापार नहीं हो सकता है। "यस्य" इसके द्वारा अपत्तिप्रमाण की ओर सङ्केत किया गया है । 'यस्य' इत्यादि का तात्पर्य है जिस शीतत्वपावनत्वादिरूप प्रयोजन की (अनुभवरूप) प्रतीति की (आधातुम् उत्पादयितुम् में तुमुन् में इच्छार्थ द्योतित होता है) की इच्छा से । अर्थात् “यत्प्रतिपिपादयिषया" जिसके प्रतिपादन की इच्छा से । इसीलिए कारिका में लिखते हैं-"प्रयोजनप्रतिपिपादयिषया"। प्रयोजन-विशेष का प्रतिपादन करने की इच्छा से जहाँ लक्षण से (लाक्षणिक) शब्द का प्रयोग किया जाता है। वहाँ उस प्रयोजन की प्रतीति किसी अन्य उपाय से (अनुमानादि से) नहीं होती है किन्तु उसी शब्द से होती है और उसके बोधन में शब्द का व्यञ्जना के अतिरिक्त और कोई व्यापार नहीं होता है। तात्पर्य यह है कि "गङ्गातीरे घोषः" इस प्रकार के वाचक शब्द का प्रयोग "गङ्गायां घोषः" इससे होनेवाले शैत्य-पावनत्व अर्थ की प्रतीति नहीं करा सकता। इसलिए कोई भी वक्ता लाक्षणिक शब्द के साथ वाचक
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy