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________________ द्वितीय उल्लासः १०५ MAM अगूढं यथा - श्रीपरिचयाज्जडा अपि भवन्त्यभिज्ञा विदग्धचरितानाम् । उपदिशति कामिनीनां यौवनमद एव ललितानि ॥ १० ॥ अनोपदिशतीति - [सू० २०] तदेषा कथिता त्रिधा ॥ १३ ॥ अव्यङ्गया गूढव्यङ्गया अगूढव्यङ्गया च । अत्रोपदिशतीति शब्देनाज्ञातज्ञापनमुपदेशः, स च मदे बाधित इति विशेषेणाज्ञातज्ञापनसामान्यं लक्ष्यते, सामान्यविशेषभावः सम्बन्धः, नटीनामयत्नेनैव शिक्षाया आपादनं निर्वहतीति स्फुटतरं व्यङ्गयं प्रतीयत इत्यर्थः । कामिनीनां कामिनीभ्य इत्यर्थः। यौवनमदे वा तदन्वयो न तु लालित्य इति भावः । कामिनीनामित्यस्य कर्मतयोपस्थितेः यौवनमद एवेत्येवकारेण लालित्यबोधकान्तरविरहप्रदर्शनात् कामिनीनां च बाल्ये वार्धक्ये च लालित्यविरहः स्फुटतरो व्यङ्गय इत्यपि बोध्यम् । • 'प्रयोजनवत्युपसंहारभ्रमं वारयति' । अव्यङ्गय ति, तथा च एषेत्यनेन लक्षणामात्रमुच्यते न तु तद्विशेषः प्रयोजनवतीति भावः । अगूढ (व्यङ्गय) का उदाहरण जैसे- "श्रीपरिचयाज्जडा" अर्थात् लक्ष्मी की प्राप्ति हो जाने पर मूर्ख (मनुष्य) भी विदग्ध के चरितों को जाननेवाले हो जाते हैं । ठीक ही है, यौवनमद ही कामिनियों को ललितों का उपदेश कर देता है ॥१०॥ ___ यहाँ ललित का लक्षण है "अनाचार्योपदिष्टं स्याल्ललितं रतिचेष्टितम्" बिना आचार्य के सिखलाये रतिचेष्टाओं का ज्ञान 'ललित' कहलाता है। ___ उपदेश अज्ञात के ज्ञापन को कहते हैं। वह उपदेश मद के द्वारा नहीं किया जा सकता। मद-कर्तृक उपदेश सम्भव नहीं है। इसलिए विशेष से अज्ञातज्ञापनरूप सामान्य लक्षित होता है। वाच्य और लक्ष्य के बीच सामान्य-विशेषभाव सम्बन्ध है। युवावस्था नारी को बिना उसके किसी प्रयास के ही लालित्य की शिक्षा प्राप्त करा देती है। "कामिनीनाम्" के स्थान में 'कामिनीभ्यः' समझना चाहिए (सम्बन्ध सामान्य विवक्षा में षष्ठी) अथवा 'कामिनीनाम्' का अन्वय यौवन-मद में मानना चाहिए 'लालित्य' में नहीं । ___कामिनीनाम्" इसे कमरूप में उपस्थित होने के कारण और 'यौवनमद एव' यहाँ एव शब्द से लालित्य (जनक) बोधक कारणान्तर के अभावप्रदर्शन के द्वारा यहां यह व्यङ्गय प्रस्तुत किया गया है कि 'कामिनी में बुढ़ापा या बचपन में लालित्य नहीं होता' यह व्यङ्गय स्फुटतर है । इसलिए यहाँ अगूढ व्यङ्गय है। "तदेषा कथिता विधा" (सू०२०) इस प्रकार यह लक्षणा व्यङ्गय की दृष्टि से तीन प्रकार की कही जा सकती है। इस सूत्र में प्रयोजनवती लक्षणा का उपसंहार हुआ है, यह किसी को भ्रम हो सकता है, उसका निवारण करते हए लिखते हैं- "अव्यङ्गया" इति । लक्षणा के वे तीन भेद ये हैं-१-अव्यङ्गया (रूढिगत लक्षणाव्यङ्गय रहिता) २-गूढ व्यङ्गया और ३-अगूढ व्यङ्गया ।
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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