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________________ ६ काव्यप्रकाश साधारणगुणाश्रयत्वेन परार्थ एव लक्ष्यत इत्यपरे । अन्ये इत्यस्वरसोद्भावनं तद्बीजं चान्यलभ्यतया धर्मिणोऽलक्ष्यत्वे तीरादेरपि गङ्गादिपदलक्ष्यतानापत्तिः। जातिशक्तिस्वीकारे चानन्त्यव्यभिचारदोषपरिहार एव बीजम् अत्र च जाड्यादेरप्यनन्ततया तदपरिहारः । वस्तुतो जातेरपि न शक्यत्वम्, अपि तु व्यक्तेरेव शाब्दसामानाधिकरण्यानुरोधादिति प्रागहमचिन्तयमिति द्रष्टव्यम् । वास्तविकं पक्षमाह साधारणेति तथा च गोव्यक्तिवृत्तिजाड्यादि समानगुणाश्रयत्वस्यकस्यैव सम्बन्धस्य सत्त्वान्नात्र लक्षणात्वक्षतिरिति न गौणीवृत्त्यन्तरमिति भावः । परार्थ इति । तथा च न सामानाधिकरण्याद्यनुप २. गोशब्द से उसके अर्थ के सहचारी जाडच, मान्द्य आदि गुणों से अभिन्न रूप में वाहीकगत गुण ही लक्षित होते हैं। परन्तु वे वाहीक अर्थ के अभिधा द्वारा बोधन में प्रवृत्ति-निमित्त नहीं होते हैं; यह अन्य मानते हैं । पूर्वोक्त पक्ति में "अभेदेन" शब्द के द्वारा सम्बन्ध बताया गया है। इस तरह शक्य-समानाधिकरण गुणों का अभेद होना ही, यहाँ गो और वाहीक में सम्बन्ध है। अर्थात् गोत्व के अधिकरण (गो) में साथ-साथ रहनेवाले गुण जाड्य और मान्द्यादि का अभेद होना ही (गो और वाहीक में) सम्बन्ध है। इसलिए सम्बन्धाभाव के कारण लक्षणाभाव का जो दोष दिया गया था; वह नहीं है। पूर्वोक्त सम्बन्ध के कारण लक्षणा हो ही जायगी। "न तु परार्थ" शब्द से बताया गया है कि वाहीक अर्थ यहाँ अभिधाबोध्य नहीं होता है। क्योंकि वह तो आक्षेपलभ्य है। यदि यह कहें कि आक्षेपलभ्य मानने पर उसका शाब्द-बोध में भान नहीं होगा और न वह "गौः" के साथ समानाधिकरणान्वय प्राप्त कर सकेगा और न उसका प्रत्ययार्थ एकत्व और कर्मत्व के साथ अन्वय हो सकेगा तो यह कथन गलत होगा, क्योंकि मीमांसक के मतानुसार जाति में शक्ति मानने पर भी जैसे "गामानय" इत्यादि स्थल में आक्षिप्त व्यक्ति के साथ जिस तरह संख्या, कर्मादि का अन्वय होता है; जैसे वहां व्यक्ति का शाब्द-बोध में भान होता है और जैसे सामानाधिकरण्य-सम्बन्ध होता है वैसे ही सब कुछ हो जायेगा। "अन्ये" इस शब्द से इस मत के साथ भी 'अस्वारस्य' अनभिमतत्व प्रकट किया गया है। उसका कारण यह है कि अन्यलभ्य होने के कारण यदि धर्मी को अलक्ष्य माने, जैसा कि आपने वाहीक को माना. है;तो तीर भी गङ्गापद का लक्ष्यार्थ नहीं माना जायगा। व्यक्ति में शक्ति न मानकर जाति में शक्ति मानने का कारण आनन्त्य और व्यभिचार दोष से छुटकारा प्राप्त करना ही था किन्तु जाड्य-मान्द्यादि गुण को लक्षणा-बोध्य मानने पर जाड्यादि के अनन्त होने के कारण अनन्त व्यभिचार दोष का परिहार नहीं हो पायेगा। शक्यतावच्छेदक की अनन्तता की तरह लक्ष्यतावच्छेदक की अनन्तता भी दोष ही मानी गयी है । वस्तुतः जाति भी शक्य नहीं है। किन्तु व्यक्ति ही शक्य है, तभी उसे "नीलीम् गामानय" यहां शाब्दसामानाधिकरण्यान्वय संभव होगा। इसीलिए शाब्द-सामानाधिकण्यानुरोधेन जाति को शक्य नहीं माना जा सकता (इस पर मैंने पूर्व पृष्ठों विचार किया है)। ऐसी स्थिति में गो शब्द के स्वार्थ के रूप में "गोत्व" को नहीं लिया जा सकता। जब गोत्व स्वार्थ ही नहीं हुआ तो जाड्य और मान्द्यादि स्वार्थ सहचारी गुण नहीं हो सकते। इस तरह स्वार्थ (गोत्व) सहचारी गुण (जाड्य-मान्यादि) से अभिन्न रूप में वाहीकगत गुण ही लक्षित होते हैं यह कथन ही गलत है। वास्तविक पक्ष बताते हैं-"साधारण गुणाश्रयत्वेन परार्थ एव लक्ष्यते इत्यपरे।" .. ३. गो और वाहीक दोनों में समान गुणों के आश्रय होने से वाहीक अर्थ ही लक्षणा के द्वारा उपस्थित होता है यह ऊपर (मुकुल भट्ट तथा मीमांसक) मानते हैं।
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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