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________________ द्वितीय उल्लासः ७७ ___ ननु गङ्गाशब्देन तटादिप्रतिपादने गङ्गासम्बन्धित्वेनैव तद् भासते न तु पूरत्वेनैवेत्यत आहगङ्गासम्बन्धमात्रेति । तथा च सम्बन्धमात्रप्रतीतो न शैत्यादिप्रत्ययोऽपि तु लक्ष्यस्य शक्याभिन्नतयैव प्रतीताविति तादृशप्रत्ययोत्पादकत्वेन भवति लक्षणाया उपयोग इति भाव इति प्रदीपकृत्प्रभृतयः । वयं तु. 'स्वसिद्धये पराक्षेप' इति कारिकायाः कस्यचिद् व्याख्यानं दूषयति--अनयोरिति । अनयोर्भेदयोरुपादान(लक्षण)लक्षणयोर्लक्ष्यस्य लक्षकस्य च लक्षणलक्षणायां भेदरूपं विशेषणविशेष्यभावेन लाक्षणिकपदजन्यपदार्थोपस्थितिविषयताश्रयभिन्नत्वम, उपादानलक्षणायां ताटस्थ्यं तदौदासीन्यं "विशेषणविशेष्यभावेन न लाक्षणिकपदाजन्य(पदजन्य)पदार्थोपस्थिति-विषयताश्रय-भिन्नत्वमिति” नेत्यर्थः । तथा च स्वस्य शक्यस्य सिद्धये प्रकारतार्थं परार्थस्याशक्यस्य प्रकारिण आक्षेपः, उपस्थापनम् उपादानं परार्थेऽशक्ये स्वस्य शक्यस्य समर्पणं प्रकारत्वपरित्यागो लक्षणलक्षणेति न कारिकार्थ इति भावः । काकेभ्य यदि लक्ष्यार्थ तट में गङ्गात्व अथवा गङ्गा शब्द के मुख्यार्थ जलप्रवाह के साथ अभेद प्रतीत न होकर केवल गङ्गा का सम्बन्ध मात्र प्रतीत हो तो 'गङ्गातटे घोषः' इस मुख्यार्थ प्रतिपादक वाक्य से "गङ्गायां घोषः" इस लक्ष्यार्थ प्रति.. पादक वाक्य का क्या भेद रहेगा ? 'ननु गङ्गादि शब्देन' इत्यादि (टीकार्थ) गङ्गा शब्द से तटादि का प्रतिपादन तटादि की प्रतीति गङ्गा से सामीप्य सम्बन्ध रखने के कारण "गङ्गा के के किनारे घोष है" इस रूप में ही होगी पूरत्वेन तो होगी नहीं, अर्थात् पूर और घोष का आधार तट एक है इस रूप में नहीं होगी, इसका खण्डन करते हुए लिखते हैं कि "सम्बन्धमात्र प्रतीतो" अर्थात् सम्बन्ध-मात्र प्रतीत होने पर "गङ्गातटे घोषः" इस वाक्य से 'गङ्गायां घोषः' इस वाक्य में कोई भेद नहीं आएगा। इस तरह जिस शीतत्वातिशय प्रतीति के लिए लक्षणा करते हैं उसकी प्रतीति ही नहीं होगी । लक्ष्य (तटादि) की शक्य (प्रवाहादि) के रूप में अभेद-प्रतीति होने पर ही उस प्रकार की (शैत्यातिशय की) प्रतीति होती है। इसलिए शक्य और लक्ष्य की अभेद प्रतीति स्वीकार करने पर ही लक्षणा का उपयोग होता है। प्रदीपकारादि टीकाकारों ने मम्मट के ग्रन्थ का यह पूर्वोक्त अभिप्राय बताया है। टीकाकार का मत . मेरे विचार में तो मम्मट ने इन पङ्क्तियों में "स्वसिद्धये पराक्षेपः" इस कारिका की किसी अन्य के द्वारा की गयी व्याख्या को दूषित बताया है । इस तरह पूर्वोक्त पङ्क्ति का अक्षरार्थ इस प्रकार सिद्ध होता है । "उपादानलक्षणा और लक्षण-लक्षणा नामक इन दोनों भेदों में लक्ष्य और लक्षक (अर्थों) के बीच लक्षण- लक्षणा में भेदरूप (ता) नहीं है । यहां 'भेदरूपम्' का अर्थ है विशेषण और विशेष्यभाव से लाक्षणिक पद से जन्य जो पदार्थोपस्थिति, उसकी विषयता का जो आश्रय, तभिन्नत्व । उपादान-लक्षणा में जो ताटस्थ्य कहा गया है, उसका अर्थ है तदौदासीन्य । विशेषण-विशेष्यभाव से लाक्षणिकपदाजन्य-पदार्थोपस्थिति-विषयताश्रयभिन्नत्व का होना ही ताटस्थ्य है या तदौदासीन्य है। परन्तु यहाँ लक्षण-लक्षणा,में पूर्वोक्त भेदरूपता नहीं है और उपादान-लक्षणा में पूर्वोक्त, 'ताटस्थ्य' नहीं है। . इस तरह कारिका की व्याख्या होगी कि-स्वस्य शक्यस्य अर्थात शक्यार्थ की सिद्धि के लिए-प्रकारताविशेषणता की सिद्धि के लिये, परार्थस्य-अशक्यार्थ का (विशेष्य का) आक्षेप उपादान-लक्षणा कहलाता है। परार्थ (अशक्यार्थ) में स्वस्य (अपना अर्थात् शवयार्थ का) समर्पण विशेषणरूप में अन्वय का परित्याग लक्षण-लक्षणा कहलाता है इस प्रकार का अर्थ कारिका का नहीं है। "काकेभ्यो दधि रक्ष्यताम्" यहाँ लक्षण-लक्षणा की, और गौनित्या यहाँ उपादानलक्षणा की प्रसक्ति को को इष्टापत्ति मानकर शंका करना सम्भव नहीं है। तात्पर्य यह है कि कारिका की पूर्वोक्त व्याख्या के अनुसार
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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