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________________ द्वितीय उल्लास: ७५ चासत्त्वेन व्यभिचार इति वाच्यम्, सादृश्यसम्बन्धनिबन्धनप्रवृत्तिकावृत्तिलक्षणाविभाजकोपाधिमत्त्वस्योपचारामिश्रगपदेनोक्तत्वादित्यवधेयम् । तटस्थत्वमेव गौणीत उपादान(लक्षण)लक्षणयोर्भेदकम्, न तूपचारामिश्रत्वमिति मतं निराकरोति अनयोरिति । अनयोरुपादान(लक्षण)लक्षणयोर्भेदो रूप्यतेऽनेनेति भेदरूपं भेदकं वैधर्म्यरूपं वा लक्ष्यस्य लक्षणाप्रतिपाद्यस्य लक्षकस्य अभिधाप्रतिपाद्यस्य च ताटस्थ्यं में भी ठीक नहीं है क्योंकि सारोपा साध्यवासना में भी साध्य के रहने के कारण सारोपा साध्यवासना उभयसाधारणशुद्धत्व के साधन में विवक्षित अर्थ की सिद्धि नहीं होती। इस वाक्य में हम कहते हैं कि “गौणीपदवाच्यभिन्नत्वव्याप्यलक्षणाविभाजकोपाधिमत्त्वरूपं शुद्धात्वमत्र साध्यम्" अर्थात् गोणीपद का जो वाच्य उससे भिन्नत्व जहाँ-जहाँ है; उनमें रहनेवाली जो लक्षणा विभाजक उपाधि है उस उपाधि से युक्तत्व ही शुद्धात्व यहाँ साध्यत्वेन अभीष्ट है। "अग्निर्माणवकः" इत्यादि गोणी लक्षणा के उदाहरणों में सादृश्य सम्बंध से लक्षणा है, इसलिए गौणी पद वाच्य है सादृश्य सम्बन्ध से भिन्नत्व वहाँ रहेगा; जहाँ सादृश्य सम्बन्ध नहीं है। इस तरह गोणीपद वाच्यभिन्नत्व हुआ सादृश्येतर सम्बन्ध है, वहां जो लक्षणा विभाजक उपाधि होगी, वह गौणी से भिन्न होगी, उस उपाधि से युक्त होना ही शुद्धा लक्षणा है। , प्रश्न-यद्यपि शुद्ध सारोपा और शुद्ध साध्यवासना में सादृश्य सम्बन्ध से अप्रवृत्त होने के कारण उपचार नहीं होने से उपचारामिश्रितत्वरूप हेतु तो है किन्तु साध्य नहीं है। इसलिए साध्याभाव के अधिकरण में विद्यमान होने के कारण हेतु को व्यभिचारी माना जायगा तथापि उपचारामिश्रण का विशेष तात्पर्य लेने पर कोई दोष न होगा। उपचारामिश्रण का तात्पर्य यदि 'सादृश्य-सम्बन्ध-निबन्धन-प्रवृत्तिकावृत्तिलक्षणा-विभाजकोपाधिमत्त्व' लें तो दोष नहीं होगा। क्योंकि सादृश्यसम्बन्ध को निमित्त बनाकर प्रवृत्त होनेवाली लक्षणा में नहीं रहनेवाली लक्षणाविभाजक उपाधि शुद्धसारोपा और शुद्ध साध्यवसाना में नहीं है। तटस्थत्व ही गौणी से उपादान-लक्षणा और लक्षण-लक्षणा को भिन्न करता है, उपचारामिश्रितत्व नहीं। इस मत का खण्डन करते हुए लिखते हैं कि 'अनयोः" । अर्थात् इन दोनों उपादान-लक्षणा और लक्षण लक्षणा में भेदक अथवा पार्थक्यसाधक या वैधर्म्य, लक्ष्य अर्थात् लक्षणा-प्रतिपाद्य अर्थ और लक्षक अर्थात अभिधाप्रतिपाद्य के बीच रहनेवाला ताटस्थ्य नहीं है । भेदरूप का अर्थभेदक है क्योंकि "भेदो रूप्यतेऽनेन इति भेदरूपम्" इस विग्रह के अनुसार भेद को रूप देनेवाला भेदरूप या भेदक सिद्ध होता है। भेद लानेवाला वैधर्म्य भी होता है इसलिए भेदरूप का अर्थ वैधर्म्यरूप भी होगा। तात्पर्य यह है कि मम्मटाचार्य के मतानुसार शुद्धा लक्षणा उपचार से अमिश्रित होती है और गौणी उपचार से मिश्रित । 'उपचार' का लक्षण है "उपचारो नाम अत्यन्तं विशकलितयोः पदार्थयोः सादृश्यातिशयमहिम्ना भेदप्रतीतिस्थगनमात्रम्" अत्यन्त भिन्न दो पदार्थों में अतिशय सादश्य के कारण उनके भेद की प्रतीति का न होना ही उपचार कहलाता है। "अग्निर्माणवकः" यहां "अग्नि और माणवक" अत्यन्त भिन्न पदार्थ हैं ? कहाँ आग और कहाँ बालक? परन्तु तेजस्विता और प्रताप आदि अतिशय सादृश्य के कारण "अग्नि: माणवकः" यहाँ भेद की प्रतीति नहीं हो रही है। इसीलिए दोनों में समान-विभक्ति का प्रयोग किया गया है। ऊपर दिये गये उदाहरण में उपचार का मिश्रण है इसलिए गौणी लक्षणा है "गङ्गायां घोषः" इत्यादि में सादृश्य से अतिरिक्त सामीप्यादि-सम्बन्ध से लक्षणा है। इसलिए यहां शुद्धा लक्षणा है। इस तरह मम्मट के विचार से “उपचार" ही शुद्धा और गौणी का परस्पर भेदक है । उपचार का मिश्रण लक्षणा और गोणी बनाता है और उसका अमिश्रण शुद्धा।
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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