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________________ ७० काव्यप्रकाशः कार्यकारणभावबलादेव व्यक्तिभानमिति भावः। एवं चाक्षिप्यत इत्यादिग्रन्थः' श्रुतार्थापत्तेरर्थापत्तेर्वा तस्य विषयत्वादित्यत्र दृष्टान्ततया योज्य इति गुरुमतानुसारेण व्याचक्ष्महे ।। ननु व्यङ्गयाभावेन 'गौरनुबन्ध्य' इत्यत्र लक्षणाया अभावेऽपि पीनो देवदत्तो दिवा न भुङ्क्ते' इत्यत्र भोजनाभावसमानाधिकरणपीनत्वप्रयुक्तोत्कर्षप्रतीते: प्रयोजनस्य सत्त्वादस्तु पीनत्वरात्रिभोजनयोः सामानाधिकरण्यात्मकशक्यसम्बन्धरूपोपादानलक्षणेत्यत आह-पीनो इति । न लक्ष्यत इति । न केवलप्रयोजनवत्तामात्रमुपादानत्वप्रयोजकम् अपि तु बाधादिसहकृतम्, दिवाभोजनाभाववतः पीनत्वं च प्रमाणान्तरप्रतिपन्नत्वान्न बाधितम् । अत एव च नोत्कर्षप्रतीतिरपि भोजनाभावसमानाधिकरणपीनत्वस्योत्कर्षप्रयोजकत्वेऽपि दिवाभोजनाभावसमानाधिकरणपीनत्वस्यातत्त्वादिति भावः । से हुई होगी। गौरनुबन्ध्यः" में जाति में शक्ति मानने के कारण व्यक्ति की पदजन्य उपस्थिति नहीं है, इसलिए उसका शाब्दबोध में प्रवेश नहीं होगा, आक्षेप या अनुमान के द्वारा उपस्थित व्यक्ति पद के द्वारा उपस्थित नहीं होने के कारण शाब्दबोध का विषय नहीं बन पायेगा। इसी तात्पर्य से कहा गया है “व्यक्त्यविना..."। व्यक्त्यविनाभावित्वात्तु जात्या व्यक्तिराक्षिप्यते" इस वाक्य में “व्यक्त्यविनाभावित्वात्" का तात्पर्य है कि व्यक्तिग्रह (व्यक्ति- ... बोध) के कारणीभूत ज्ञान में विषयता-सम्बन्धेन जाति के साथ (विनाऽपि सहशब्दयोगं तदर्थे सति तृतीया भवति) व्यक्ति का आक्षेप होता है । अर्थात् शब्द द्वारा व्यक्ति उपस्थापित होता है। इस तरह जाति-विषयक शक्ति-ज्ञानत्व को कारणतावच्छेदक माना जायगा और जाति-विशिष्ट व्यक्तिविषयक ज्ञानत्व को कार्यतावच्छेदक मानेंगे। इस तरह कार्यकारणभाव के बल से ही व्यक्ति का भान होगा। इस प्रकार 'आक्षिप्यते' इत्यादि काव्यप्रकाश के वृत्ति ग्रन्थ को "श्रुतार्थापत्तेरपित्तेर्वा तस्य विषयत्वात्” यहाँ दृष्टान्त के रूप में जोड़ना चाहिए । इस तरह हम (श्री १०८ यशोविजयजी महाराज) पूर्वोक्त ग्रन्थ की गुरुमत के अनुसार व्याख्या करते हैं। अर्थापत्ति लक्षणा नहीं ___अस्तु; व्यङ्गय (प्रयोजन) के अभाव के कारण "गौरनुबन्ध्यः" यहाँ लक्षणा का अभाव मानना तो ठीक है; परन्तु 'पीनोऽयं देवदत्तः दिवा न भूक्ते" यहाँ भोजन न करने पर भी देवदत्त में पीनत्व-प्रयुक्त उत्कर्ष की प्रतीतिरूप प्रयोजन होने के कारण पीनत्व और रात्रि-भोजन में सामानाधिकरण्यात्मक-शक्यसम्बन्धरूप उपादानलक्षणा हो सकती है। इस भ्रम के निवारण के लिए लिखते हैं "पीनो देवदत्तो दिवा न भूक्ते इत्यत्र च रात्रिभोजनं न लक्ष्यते"। तात्पर्य यह है कि- केवल प्रयोजन का होना ही उत्पादन का प्रयोजक नहीं है अर्थात उपादान-लक्षणा के लिए प्रयोजन का होना ही पर्याप्त नहीं है; अपितु बाधादि (मुख्यार्थ-बाधादि) के साथ प्रयोजन उपादान का प्रयोजक है। मुख्यार्थ-बाध, मुख्यार्थ-सम्बन्ध और प्रयोजन तीनों लक्षणा के हेतु हैं। दिन में नहीं खानेवाला भी मोटा देखा गया है। इस प्रकार दिन में भोजन नहीं करनेवाले व्यक्ति में (उलूकादि में भो) पीनत्व प्रत्यक्षरूप प्रमाणान्तर से सिद्ध होने के कारण पूर्वोक्त वाक्य के मुख्यार्थ में बाध (रुकावट) नहीं है। आपने जिस उत्कर्ष-प्रतीति को प्रयोजन बताया है; वह उत्कर्ष-प्रतीति भी यहां नहीं है। भोजनाभावसमानाधिकरण-पीनत्व की प्रतीति वस्तुत: उत्कर्ष की प्रयोजिका हो सकती है। भोजन न करे और फिर भी पीन (मोटा) बना रहे वह सचमुच उत्कृष्टत्व है। भोजन के अभाव के अधिकरण (आथय) व्यक्ति में पीनत्व की प्रतीति ही न्याय की शब्दावली में भोजनाभाव-समानाधिकरणपीनत्वप्रतीति कहलाती है। वह सचमुच उत्कृष्टता को (ब्रह्मचर्यादि तपोबल को) सूचित करती है किन्तु दिवा-भोजनाभाव-समानाधिकरण-पीनत्व उत्कर्ष का प्रयोजक नहीं है। १. 'काव्यप्रकाश:' इत्यर्थः ।
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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