SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 218
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ काव्यप्रकाशः शौर्य वा, काकेभ्य इत्यादौ शीघ्रपातित्वम्, छत्रिण इत्यत्र च वृष्टयादिभयाभावो व्यङ्गय इति भावः । नन्वेवं रूढिलक्षणैवेयमित्यत आह- न वेति, लक्षणौदासीन्येनैव प्रसिद्धर्न निरूढलक्षणाऽपीयमिति बहवः । तन्न । लक्षणौदासीन्येन प्रसिद्धेस्तेनानभ्युपगमात् । रथो गच्छतीत्यत्राख्याते मीमांसकाना लाक्षणिक त्वाङ्गीकाराच्च अनादिप्रसिद्धौ निरूढलक्षणा सादिव्यक्तौ न सम्भवति प्रवाहानादित्वं व्यक्तौ नोपलक्षणमन्तरेति न वेति फक्किकार्थ इति सुबुद्धिमिश्राः, तन्न। प्रसिद्धावपि ज्ञानरूपायां प्रवाहानादित्वस्यैव सम्भवेन तादृशानादित्वस्य व्यक्तावपि सत्त्वात्, एवं दक्षादावाधुनिकसंज्ञाशब्दार्थेष्वपि सामान्यतोऽनादिप्रसिद्धौ बाधकाभावाच्च । "विशेष्यं नाभिधा गच्छेत् क्षीणशक्तिविशेषणे" में 'क्षीणशक्ति' का अर्थ, विशेषण को कहकर विरत होना, विश्रन्ति लेना, या रुकना है। मण्डन मिश्र आदि का मत क्यों मान्य नहीं है, इसका कारण बताते हुए कहते हैं "नात्र प्रयोजनमस्ति""। . पूर्वोक्त पङ्क्ति में आये हुए 'प्रयोजनम्' का अर्थ 'व्यङ्गय है। 'कुन्ताः प्रविशन्ति' में कुन्तधारी पुरुषों का बाहुल्य या शौर्य व्यङ्गय है वही लक्षणा का प्रयोजन है । 'काकभ्यो दधि रक्ष्यताम्' यहां शीघ्रपातित्व प्रयोजन (व्यङ्गय) है। दध्यपघातक अन्य प्राणियों की अपेक्षा कौओं का शीघ्र उड़कर आकर दही पर पड़ना ही व्यङ्गय है। "छत्रिणो यान्ति" .. में छत्ताधारी होने के कारण यात्रा में वृष्टि या धूप आदि के भय का अभाव बताना ही व्यङ्गय है-प्रयोजन है । इस .. तरह सिद्ध है कि लक्षणा में कुछ न कुछ प्रयोजन या व्यङ्गय अवश्य हुआ करता है। "गौरनुबन्ध्यः" यहाँ कुछ व्यङ्गध या प्रयोजन नहीं है, इसलिए इसे लक्षणा का उदाहरण मानना ठीक नहीं होगा। अस्तु, प्रयोजन नहीं होने से भले ही यह प्रयोजनवती-लक्षणा का उदाहरण न हो, किन्तु 'निरूढा लक्षणा' का उदाहरण तो बन ही सकता है; क्योंकि "कर्मणि कुशल:" आदि निरूढालक्षणा (रूढिमूलक लक्षणा),में किसी प्रकार के व्यङ्गय या प्रयोजन की अपेक्षा नहीं की जाती है। यही कहते हुए लिखते हैं कि- 'न वा रूढिरियम्' यह रूढि लक्षणा भी नहीं हैं क्योंकि लक्षणा के बिना ही "गौरनुबन्ध्यः" में व्यक्ति अर्थ की उपस्थिति हो जाया करती है यह सर्वानुभव सिद्ध होने के कारण प्रसिद्ध है । इसलिए यहाँ निरूढा लक्षणा भी नहीं है इस तरह की बहुत लोगों के द्वारा की गयी "नवा रूढिरियम्" इस वाक्य की व्याख्या युक्तियुक्त नहीं हैं, क्योंकि मीमांसक मण्डन मिश्र ने लक्षणा के बिना व्यक्तिबोध नहीं माना है इसलिए उनके मत में लक्षणा के बिना व्यक्ति की उपस्थिति नहीं होने के कारण व्यक्ति अर्थ को प्रसिद्ध नहीं माना जा सकता। "रथो गच्छति" यहाँ (नैयायिकों ने) आख्यात में और मीमांसकों ने आश्रयत्व में लक्षणा स्वीकार की है। वैयाकरणों को बिना लक्षणा के ही व्यापार की प्रतीति होती है परन्तु नैयायिक वहां भी लक्षणा स्वीकार करते हैं। इस तरह किसी को लक्षणोदासीन्येन (लक्षणा के बिना) यदि प्रतीति हो गयी, तो वह निरूढा लक्षणा में बाधक नहीं हो सकती। अनादिकाल से प्रसिद्धि रहने पर होनेवाली निरूढा लक्षणा सादि व्यक्ति में नहीं हो सकती। व्यक्ति को "धाता यथापूर्वमकल्पयत्" इस श्रति के अनुसार प्रवाहरूप में अनादि, उपलक्षण (लक्षणा) के बिना नहीं माना जा सकता । इस तरह 'गौरनुबन्ध्यः' में निरूढा लक्षणा भी नहीं मान सकते इत्यादि ("न वा रूढिरियम्" इस का फक्किकार्थ-उलझन से भरा हुआ तर्कपूर्ण अर्थ) सुबुद्धि मिश्र कहते हैं। किन्तु सुबुद्धि मिश्र का मत भी यक्त नहीं है क्योंकि जिन अर्थों को प्रसिद्ध समझा जाता है वे भी ज्ञानरूप में ही रहते हैं तो ऐसी प्रसिद्ध ज्ञानरूप वस्तुओं में उन्हें अनादित्व प्रवाह के अनादि होने से ही मानना पड़ेगा। वह प्रवाहानादित्व तो व्यक्ति में भी हो सकता है। इसलिए व्यक्ति भी अनादि प्रसिद्ध हुआ फिर वहाँ निरूढा लक्षणा हो ही सकती है। दक्ष आदि जो आधुनिक संज्ञाशब्द हैं, उनके अर्थों को भी सामान्यरूप में प्रवाह के रूप में अनादि प्रसिद्ध मानने में कोई बाधा नहीं प्रतीति होती।
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy